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________________ नयम अध्ययन : विनय-समाधि] [361 विवेचन--पूज्यत्व की अर्हताएँ-प्रस्तुत चौदह गाथाओं (462 से 505 तक) में लोकपूज्य बनने वाले साधु के पूज्यत्व की अर्हताएं दी गई हैं। लोकपूज्य बनने वाले साधक की तीस अर्हताएँ-साधु की पूजा-प्रतिष्ठा केवल वेष या क्रियाकाण्डों के आधार पर नहीं होती। वह होती है गुणों के आधार पर / वे गुण या वे अर्हताएँ निम्नोक्त हैं, जिनके आधार पर साधु को पूज्यता प्राप्त होती है-(१) प्राचार्य की शुश्रूषा करता हुआ जागरूक रहे, (2) उनकी दृष्टि और चेष्टाओं को जान कर अभिप्रायों के अनुरूप आराधना करे, (3) प्राचारप्राप्ति के लिए विनय-प्रयोग करे, (4) आचार्य के वचनों को सुनकर स्वीकार करे और तदनुसार अभीष्ट कार्य सम्पादित करे, (5) गुरु की पाशातना न करे, (6) दीक्षापर्याय में ज्येष्ठ एवं रत्नाधिक साधुओं का विनय करे, (7) सत्यवादी हो, (8) प्राचार्य की सेवा में रहे, (6) प्राचार्य की आज्ञा का पालन करे, (10) नम्र होकर रहे, (11) अज्ञातकुल में सामुदायिक विशुद्ध भिक्षाचरी करे, (12) पाहार प्राप्त न हो तो खेद न करे, प्राप्त होने पर श्लाघा न करे, (13) संस्तारक, शय्या, आसनादि अत्यधिक मिलने लगे तो भी अल्पेच्छा रखे, थोड़े में सन्तुष्ट हो, संतोष में रत रहे, (14) विना किसी भौतिक लाभ की आशा से कर्णकटु वचनों को समभावपूर्वक सहन करे, (15) परोक्ष में किसी का अवर्णवाद न करे, (16) प्रत्यक्ष में वैरविरोध बढ़ाने वाली, निश्चयकारी तथा अप्रियकारी भाषा न बोले, (17) जिह्वालोलुपता आदि से दूर हो, (18) मंत्र-तंत्रादि ऐन्द्रजालिक प्रपंचों से दूर रहे, (16) माया एवं पैशुन्य से दूर रहे, (20) दीनवृत्ति न करे, (21) न तो दूसरों से अपनी स्तुति कराए और न स्वयं अपनी स्तुति करे, (22) खेलतमाशे आदि कुतूहलवर्द्धक प्रवृत्तियों से दूर रहे, (23) साधुगुणों को ग्रहण करे और असाधुगुणों को त्यागे, (24) अपनी आत्मा को प्रात्मा से समझने वाला हो, (25) रागद्वेष के प्रसंगों में सम रहे, (26) किसी की भी अवहेलना, निन्दा एवं भर्त्सना न करे, (27) अहंकार और क्रोध का त्याग करे, (28) सम्मानार्ह तपस्वी, जितेन्द्रिय, सत्यवादी साधु पुरुषों का सम्मान करे, (26) पंचमहाव्रतपालक, त्रिगुप्तिधारक और कषायचतुष्टयरहित हो, (30) गुणसमुद्र गुरुयों के सुवचनों को सुनकर तदनुसार आचरण करे / ' 'छंदमाराहयई : व्याख्या-'छंदमाराहयई'-छंद अर्थात् गुरु के अभिप्राय को समझ कर तदनुसार समयोचित कार्य करता है / यहाँ गुरु के अभिप्राय को समझने के लिए दो शब्द दिये हैं'आलोकित' और 'इंगित' / उनका तात्पर्य है कि शिष्य गुरु के निरीक्षण और अंगचेष्टा से उनका अभिप्राय जाने और तदनुसार उनकी आराधना करे। निरीक्षण से अभिप्राय जानना--जैसे कि गुरु ने कंबल की ओर देखा, उसे देख कर शिष्य ने तुरंत भांप लिया कि गुरुजी को ठंड लग रही है, उन्हें कंबल की आवश्यकता है। अंगचेष्टा से अभिप्राय जानना-यथा---गुरुजी को कफ का प्रकोप हो रहा है। बार-बार खांसते हैं / शिष्य ने उनकी इस अंगचेष्टा को जानकर सोंठ आदि औषध ला कर सेवन करने को दी। अभिप्राय जानने के और भी साधन हैं, जिन्हें एक श्लोक में दिया है--"प्राकृति, इंगित (इशारा), गति (चाल), चेष्टा, भाषण, आँख और मुंह के विकारों से किसी के आन्तरिक मनोभावों को जाना जा सकता है / 2 1. दशव. (प्राचार्यश्री पात्मारामजी म.), पत्राकार, पृ. 904 से 928 तक का सार / 2. (क) यथा शीते पतति प्रावरणाबलोकने तदानयने / (ख) इंगिने वा निष्ठोबनादिलक्षणे शुण्ठ्यानयनेन / हारि, वृत्ति, पत्र 252 (ग) 'प्राकारैरिंगितर्गत्या चेष्टया भाषणेन च / / नेत्र-वक्त्रविकारश्च लक्ष्यतेऽन्तर्गतं मनः // ' --हितोपदेश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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