________________ 360] [दशवकालिकसूत्र [498] लोहमय कांटे तो केवल मुहर्त्तभर (अल्पकाल तक) दुःखदायी होते हैं; फिर वे भी (जिस अंग में लगे हैं) उस (अंग) में से सुखपूर्वक निकाले जा सकते हैं / किन्तु वाणी से निकले हुए दुर्वचनरूपी कांटे कठिनता से निकाले जा सकने वाले, वैर की परम्परा बढ़ाने वाले और महाभयकारी होते हैं / / 7 / / [466] (एक साथ एकत्र हो कर सामने से) प्राते हुए कटुवचनों के प्राघात (प्रहार) कानों में पहुँचते ही दौर्मनस्य उत्पन्न करते हैं; (परन्तु) जो वीर-पुरुषों का परम अग्रणी जितेन्द्रिय पुरुष 'यह मेरा धर्म है' ऐसा मान कर (उन्हें समभाव से) सहन कर लेता है, वहीं पूज्य होता है // 8 // 6500] जो मुनि पीठ पीछे कदापि किसी का अवर्णवाद (निन्दावचन) नहीं बोलता तथा प्रत्यक्ष में (सामने में) विरोधी (शत्रुताजनक) भाषा नहीं बोलता एवं जो निश्चयकारिणी और अप्रियकारिणी भाषा (भी) नहीं बोलता, वह पूज्य होता है / / 6 / / [501] जो (रसादि का) लोलुप (लोभी) नहीं होता, इन्द्रजालिक (यंत्र-मंत्र-तंत्रादि के) चमत्कार-प्रदर्शन नहीं करता, माया का सेवन नहीं करता, (किसी को) चुगली नहीं खाता, (संकट में घबरा कर या सरस आहारादि पाने के लाभ से किसी के सामने) दीनवृत्ति (दीनतापूर्वक याचना) नहीं करता, दूसरों से अपनी प्रशंसा (श्लाधा) नहीं करवाता और न स्वयं (अपने मुंह से) अपनी प्रशंसा करता है तथा जो कुतूहल (खेल-तमाशे दिखा कर कौतुक) नहीं करता, वह पूज्य है / / 10 / / [502] (मनुष्य) गुणों से साधु होता है, अगुणों (दुर्गुणों) से असाधु / इसलिए (हे साधक ! तू) साधु के योग्य गुणों को ग्रहण कर और असाधु-गुणों (असाधुता) को छोड़ / आत्मा को आत्मा से जान कर जो राग-द्वेष (राग-द्वेष के प्रसंगों) में सम (मध्यस्थ) रहता है, वही पूज्य होता है / / 11 / / [303] इसी प्रकार अल्पवयस्क (बालक) या वृद्ध (बड़ी उम्र का) को, स्त्री या पुरुष को, अथवा प्रव्रजित (दीक्षित) अथवा गृहस्थ को उसके दुश्चरित को याद दिला कर जो साधक न तो उसकी हीलना (निन्दा या अवज्ञा) करता है और न ही (उसे) झिड़कता है तथा जो अहंकार और क्रोध का त्याग करता है, वही पूज्य होता है / / 12 / / / [504] (अभ्युत्थान आदि विनय-भक्ति द्वारा) सम्मानित किये गए प्राचार्य उन साधकों को सतत सम्मानित (शास्त्राध्ययन के लिए प्रोत्साहित एवं प्रशंसित) करते हैं, जैसे-(पिता अपनी कन्याओं को) यत्नपूर्वक योग्य कुल में स्थापित करते हैं, वैसे ही (जो प्राचार्य अपने शिष्यों को योग्य स्थान, पद या सुपथ में) स्थापित करते हैं; उन सम्मानार्ह, तपस्वी, जितेन्द्रिय और सत्यपरायण प्राचार्यों का जो सम्मान करता है, वह पूज्य होता है / / 13 / / [505] जो मेधावी मुनि उन गुण-सागर गुरुओं के सुभाषित (शिक्षावचन) सुनकर, तदनुसार आचरण करता है; जो पंच (महाव्रतों में) रत, (मन-वचन-काया की) तीन (गुप्तियों से) गुप्त (हो कर) चारों कषायों (क्रोध, मान, माया और लोभ) से रहित हो जाता है, वह पुज्य होता है / / 14 // Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org