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________________ 354] [दशवकालिकसूत्र शरीर की दशा आदि से जान ले / यथा-कफ का प्रकोप देखे तो कफनाशक पदार्थों का सेवन कराए, इसी प्रकार वात या पित्त का प्रकोप देखे तो वातनाशक या पित्तनाशक पदार्थों का सेवन कराए / '3 अविनीत और विनीत को सम्पत्ति, मुक्ति प्रादि की अप्राप्ति एवं प्राप्ति का निरूपण 489. विवत्ती अविणीयस्स, संपत्ती विणियस्स या। ___ जस्सेयं दुहनो नायं, सिक्खं से अभिगच्छई // 21 // 490. जे यावि चंडे मइइड्डि-गारवे पिसुणे नरे साहस होणपेसणे / अदिट्ठधम्मे विणए अकोविए असंविभागी न हु तस्स मोक्खो // 22 // 491. निद्देसवत्ती पुण जे गुरूणं सुयत्थधम्मा विणयम्मि कोविया। तरितु ते ओहमिणं दुरुत्तरं, खवित्त कम्मं गइमुत्तमं गया / / 23 / / -त्ति बेमि विणय-समाहीए बीओ उद्देसमो समत्तो // 6-2 / / [486] अविनीत (व्यक्ति) को विपत्ति और विनीत को सम्पत्ति (प्राप्त) होतो है, जिसको ये (उक्त) दोनों प्रकार से (विपत्ति और सम्पत्ति) जात है, वही (इस कल्याणकारिणी) शिक्षा को प्राप्त होता है // 21 // [460] जो मनुष्य चण्ड (क्रोधी) है, जिसे अपनी बुद्धि और ऋद्धि का गर्व (अथवा जिसकी बुद्धि आदि गौरव में निमग्न) है, जो पिशुन (चुगलखोर) है, जो (अयोग्यकार्य करने में) साहसिक है, जो गुरु-आज्ञा-पालन से हीन (पिछड़ा हुआ) है, जो (अपने श्रमण-) धर्म से अदृष्ट (अनभिज्ञ) है, जो विनय में निपुण नहीं है, जो संविभागी नहीं है, उसे (कदापि) मोक्ष (प्राप्त) नहीं होता !!22 / / [461] किन्तु जो (साधक) गुरुओं की आज्ञा के अनुसार प्रवृत्ति करते हैं, जो (श्रुतार्थधर्म-विज्ञ) गीतार्थ हैं तथा विनय में कोविद (-निपण हैं: वे इस दस्तर संसार-सागर तैर कर कर्मों का क्षय करके सर्वोत्कृष्ट गति में गए हैं, (जाते हैं और जाएंगे) / / 23 / / / --ऐसा मैं कहता हूँ विवेचन -शिक्षा-प्राप्ति के अयोग्य : कौन और कैसे ?-प्रस्तुत गाथा 486 में 'विवसती अविणीयस्स' इत्यादि पंक्ति का भावार्थ यह है कि जो व्यक्ति अपने पूज्यवर गुरुजनों की बिनय-भक्ति नहीं करता, इतना ही नहीं, बल्कि वह उद्धत होकर उनकी पाशातना करता है, उसके सम्यग्दर्शन, 13. (क) 'जधा कालं जोग्गं भोजणासणादि उवणेयं / ' -अगस्त्य चूर्णि (ख) जिनदास चणि : तत्थ सरदि वात-पित्तहराणि दब्वाणि ग्राहरिज्जा.......'छंदो नाम इच्छा भण्णइ'' 'उवयार' णाम विधी भण्णइ। -जिन. चणि, पृ. 316 / / (ग) 'उवयारो प्राणा को ति प्रागतिप्राए तूसति / ' -अगस्त्य चणि (घ) उपचारं पाराधना-प्रकारम् / --हारि. वृत्ति, पत्र 250 (ड) दशव. (ग्राचार्यश्री पात्मारामजी म.), पत्राकार पृ. 895-896 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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