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________________ नवम अध्ययन : विनय-समाधि] [355 सम्यग्ज्ञान आदि सद्गुणों की विष्टि (विपत्ति) हो जाती है और पूर्वोक्त विनयगुणों से सम्पन्न सुविनीत पुरुष, जो अपने से स्थविर वन्दनीय पूज्य गुरुजनों की सभी प्रकार से भक्तिभाव से यथोचित विनय करता है, उसके 'सम्यग्दर्शन-ज्ञान आदि सद्गुणों की सम्यक् वृद्धि (सम्पत्ति) होती है / उक्त दोनों प्रकार से हानि और वृद्धि जिसे ज्ञात है, अर्थात् --अविनय हेय है, विनय पूर्णतः उपादेय है, इस बात को जो जान चुका है, वही गुरुजनों के सान्निध्य में रह कर उनकी कृपापूर्ण दृष्टि से ग्रहण और प्रासेवन, दोनों प्रकार की कल्याणकारिणी मोक्ष सुखदायिनी शिक्षा को प्राप्त करने के योग्य होता है / 14 मोक्ष के लिए अयोग्य-पूर्व गाथा में उक्त शिक्षा के लिए अयोग्य अविनीत व्यक्ति के 90 में बताया गया है कि जो साधक साधूजीवन में क्रोध की प्रचण्ड अग्नि में धधकता रहता है, जो अपने ऋद्धि और बुद्धि के गौरव (गर्व) में अन्धा होकर रहता है, जो अनाचारसेवन में साहसिक होता है तथा जो अपने गुरु की हितशिक्षाकारी प्राजाओं के पालन करने में टालमटोल करता है, प्राज्ञा लोप करने में स्वयं को धन्य समझता है, जो धर्म-कर्म की बातों से अनभिज्ञ है, उन्हें निकम्मी समझकर उनकी खिल्ली उड़ाता है, जो विनय की विधियों से भी अपरिचित है, जिसे विनय व्यर्थ का भार मालूम होता है, जो प्राप्त अन्न, वस्त्र आदि अपने साथी साधुनों में वितरित नहीं करता, न हो उन्हें देता है, संविभाग (ठीक बंटवारा)नहीं करता, ऐसे दुर्गुणी व्यक्ति को मोक्षप्राप्ति नहीं हो सकती / यही इस गाथा का प्राशय है / 15 मोक्षप्राप्ति के योग्य-गाथा 461 के अनुसार-जो साधक अपने स्वार्थों की परवाह न करके प्राणप्रण से सदगरुनों की प्राज्ञापालन में तत्पर रहते हैं. जो श्रतधर्म के सिद्धान्तों के सूक्ष्म रहस्यों के ज्ञाता (गीतार्थ) होते हैं तथा विनयधर्म के विधि-विधानों के विषय में दक्ष होते हैं, वे इस दुःखमय संसार-सागर को सुखपूर्वक तैर कर तथा कर्मशत्रुओं के दलबल को समूल नष्ट करके अनुपम सिद्धिगति को प्राप्त होते हैं, हुए हैं और होंगे / यही इस गाथा का प्राशय है / 16 'विवत्ति' आदि शब्दों के विशेषार्थ-विवत्ति-विपत्ति, इसका विशेष अर्थ है सद्गुणोंसम्यग्ज्ञानादि सदगुणों का नष्ट होना / संपत्ति-सम्पत्ति-अर्थ होता है, सम्पदा / परन्तु यहाँ भौतिक सम्पत्ति नहीं. सम्यग्दर्शनादि प्राध्यात्मिक सम्पत्ति प्राप्त होती है, विनीत व्यक्ति को / हओ-दोनों प्रकार से हानि-वृद्धि को जो ज्ञात कर चुका है। अर्थात् वह भलीभांति जानता है कि विनय से ही सद्गुणों की सम्प्राप्ति एवं वृद्धि होती है / अतः यही पूर्णतः उपादेय है तथा अविनय से दुर्गुणों की प्राप्ति और सद्गुणों की हानि होती है / अतः वह सर्वथा हेय है / माइड्डिगारवे : तीन अर्थ-(१) जो ऋद्धि-गौरव में अभिनिविष्ट है / (2) जो मति द्वारा ऋद्धिगौरव वहन करता है। (3) जिसे बुद्धि और ऋद्धि का गर्व है / साहस-बिना सोचे-समझे आवेश में आकर कार्य (अकृत्य कार्य) करने में तत्पर रहता है। होणपेसणे-हीनप्रेषण-प्रेषण के अर्थ हैं--प्राज्ञा, नियोजन, या कार्य में प्रवृत्ति ---- ---- -- 14. दशव. (प्राचार्यश्री प्रात्मारामजी म.), पृ. 897 15, वही, पृ. 899 16. वही, पृ. 901 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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