________________ नवम अध्ययन : विनय-समाधि] / 353 पदों की व्याख्या--नीयं सेज्जं- प्राचार्य या गुरु की शय्या से अपनी शय्या (बिस्तर) नीचे स्थान में करना / गइं--नीची गति करे, अर्थात्----साधु आचार्य या गुरु के आगे या पीठ पीछे न चले, न ही अतिदूर और प्रतिनिकट चले / प्रतिनिकट चलने से धूल उड़ कर प्राचार्य पर लगती है और अति दूर चलने, जल्दी जल्दी आगे चलने से प्रत्यनीकता या पाशातना होती है / ठाणं-नीचे स्थान में खड़ा रहे / आचार्य खड़े हों, उनसे नीचे स्थान में खड़ा रहे / उनके आगे या पार्श्वभाग में सट कर खड़ा न हो। नीयं च आसणाणि-दो अर्थ-(१) प्राचार्य के प्रासन (पदा, चौकी प्रादि) से अपना प्रासन नीचा करे, (2) प्राचार्य से अपना आसन लघुतर करे / नीयं च पाए वंदेज्जा नीचा होकर प्राचार्य के चरणों में वन्दना करे / प्राचार्य आसन पर बैठे हों तो शिष्य नीचे (निम्न) भूभाग पर खड़ा हो, फिर भी खड़ा-खड़ा ही वन्दना न करके सिर से चरणस्पर्श कर सके उतना झुक कर वन्दना करे / नीयं कुज्जा य अंजलि-नीचा होकर अंजलि करे--करबद्ध हो। अर्थात् नमस्कार करने के लिए सीधा खड़ा-खड़ा हाथ जोड़ कर न रह जाए, किन्तु सिर झका कर करबद्ध होकर नमस्कार करे / _ 'कालं' आदि पदों की व्याख्या-कालंकाल को देखकर, अर्थात्-यह कौन-सी ऋतु है ?, रात है या दिन ? कैसी परिस्थिति है गुरुजी की ? उपयुक्त अवसर है या नहीं ? इत्यादि सब जाने / यथा-शरद् आदि ऋतुओं के अनुकूल भोजन, शय्या, आसन आदि लाए / छंदं-गुरु के अभिप्राय, (इच्छा, चेष्टा, इंगित, प्राकार आदि) को जाने कि गुरुजी इस समय क्या चाहते हैं ? इन्हें इस समय किस वस्तु की आवश्यकता है ? किस कार्यसिद्धि के लिए इनके हृदय में विचार-प्रवाह बह रहा है ? देश-काल के अनुसार रुचियां भी विभिन्न होती हैं / जैसे---किसी को ग्रीष्म ऋतु में छाछ प्रिय होती है, किसी को सत्तू प्रादि / क्षेत्र के आधार पर भी रुचि-परिवर्तन होता है-जैसे—ठंडे प्रदेश में गर्म पेय और गर्म प्रदेश में शीतल पेय अभीष्ट होता है। उवयारं : उपचार : तीन अर्थ-(१) विधि (सेवा को विधियां), (2) आराधना के प्रकार, अथवा (3) प्राज्ञा क्या है, इसे जान कर / हेहि--हेतुओं से-प्रर्थात्-नानाविध हेतुओं-तर्क-वितर्को, ऊहापोहों, अनुमानों, स्वयं स्फुरणाओं आदि से देश, काल, अभिप्राय एवं सेवा के प्रकारों को जाने / तात्पर्य यह है कि गुरुमहाराज के कहे बिना ही उनके (क) नीचां 'शय्या'-संस्तारकलक्षणामाचार्यशव्यायाः सकाशात् कुर्यादिति योगः। नीचां गतिमाचार्यगते:, तत्पृष्ठतो नातिदरेण नातिद्र तं यायादित्यर्थः। नीचं स्थानमाचार्यस्थानात. यत्राचार्य प्रास्ते तस्मानीचतरे स्थाने स्थातव्यमिति भावः। नीचानि वा लघुतराणि / नीचं च सम्यगवनतोत्तमांग: सन् पादावाचार्यसत्को वन्देत, नावज्ञया। नीचं नम्रकायं कुर्यात--संपादयेच्चाञ्जलि, न तु स्थाणुवत् स्तब्ध एवेति / -हारि. वृत्ति, पत्र 250 (ख) 'णीयां गई' णाम ण पायरियाण पिट्रमो गंतव्वं, तमिवि णो अच्चासन्नां न वा अतिदुरेण गंतव्वं / ग्रच्चासन्ने ताव पादरेणुणा पायरियसंघट्टण-दोसो भवई, अइदूरे पडिणीय-पासायणादि बहवे दोसा भवंतीति / तहा नीययरे पीढगाइमि पासणे पायरिअणुन्नाए उवविसेज्जा / जइ पायरियो पासणे, इतरो भूमिए नीययरे भूमिप्पदेसे बंदमाणो उठ्ठिनो न बंदेज्जा, किंतु जाव सिरेण फुसे पादे तावणीय वंदेज्जा। तहा अंजलिमवि कुब्वमाणेण णो पहाणम्मि उवविठेण अंजली कायबा, किन्तु ईसिग्रवणएण कायवा। -~-जिन. चूणि, पृ. 315 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org