________________ 352] [दशवकालिकसूत्र x [आलवंते लवंते वा न निसिज्जाइ पडिस्सुणे / मुत्तणं आसणं धीरो, सुस्सूसाए पडिस्सुणे // ] 48. कालं छंदोवयारं च पडिलेहित्ताण हेउहि / तेण तेण उवाएणं, तं तं संपडिवायए // 20 // [485] (साधु आचार्य से) नोची शय्या करे, नीची गति करे, नीचे स्थान में खड़ा रहे, नीचा प्रासन करे तथा नीचा होकर (सम्यक् प्रकार से विनत होकर प्राचार्यश्री के) चरणों में वन्दन करे और नीचा होकर अंजलि करे (हाथ जोड़ कर नमस्कार करे) // 17 // [486] (कदाचित् असावधानी से गुरुदेव या प्राचार्य के) शरीर (चरण आदि शरीर के अवयवों) का अथवा (उनके) उपकरणों का भी स्पर्श (संघट्टा) हो जाए तो (तत्काल उनसे) कहे -- (भगवन् ! ) मेरा अपराध क्षमा करें, फिर ऐसा नहीं होगा' // 18 / / [4873 जिस प्रकार दुष्ट बैल (अयोग्य गलिया बैल) चाबुक से (बार-बार) प्रेरित किये जाने पर (ही) रथ को वह्न करता है, उसी प्रकार दुर्बुद्धि शिष्य (भी) आचार्यों (गुरुओं) के वारबार कहने पर (कार्य) करता है / / 16 / / [गुरु के एक बार बुलाने पर अथवा बार-बार बुलाने पर बुद्धिमान् शिष्य (उनकी बात सुन कर अपने) आसन पर से ही उत्तर न दे, (किन्तु शीघ्र ही) प्रासन छोड़ कर शुश्रूषा के साथ (उनकी बात सुन कर समुचित रूप से) स्वीकार करे / / [488] (शीतादि) काल को, गुरु के अभिप्राय (छन्द) को और (सेवा करने के) उपचारों (विधियों) को तथा देश आदि को (तर्क-वितर्करूप) हेतुनों से भलीभांति जानकर उस-उस (तदनुकूल) उपाय से उस-उस योग्य कार्य को सम्पादित (पूरा) करे / / 20 // विवेचन-सर्व क्रियाओं में गुरुओं के प्रति नम्रभाव : विनय का प्रथम पाठ—प्रस्तुत चार गाथाओं (485 से 488 तक) में गुरुओं के प्रति लोकोत्तर उपचारविनय की विधि बताई गई है। 487 वी गाथा में दुविनीत शिष्य की दुष्ट बैल से उपमा देकर उसकी वृत्ति का परिचय दिया गया है। 'दुग्गओं' आदि पदों के विशेषार्थ-दुग्गो-दुर्गवो-दुष्ट-गलिया बैल / किच्चाणं-कृत्यानां, कृत्य का अर्थ वन्दनीय या पूज्य है / प्राचार्य, उपाध्यायादि पूज्यवर वन्द्य गुरुजन कृत्य कहलाते हैं / 'किच्चाई' पाठान्तर है, वहाँ अर्थ होगा-१ प्राचार्यादि के अभीष्ट कृत्य-कार्य / 'नीयं सेज्ज' आदि अधिकपाठ-४ इस निशान वालो गाथा कई प्रतियों में मिलती है। —सं. 11. (क) दुग्गयो-दुर्गवः दुष्टबलीव इत्यर्थः / (ख) कृत्यानामाचार्यादीनां बन्दनीय-पूजनीयानामित्यर्थः / कृत्यानि वा-तदभिरुचितकार्याणि / - हारि. वृत्ति, पृ. 250 (ग) दमवेयालियं (मुनि नथमलजी), पृ. 446 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org