________________ [दशवकालिकसूत्र 468. सोच्चाण मेहावि सुभासियाई सुस्सूसए आयरिएऽपमत्तो। आराहइत्ताण गुणे अणेगे, से पाबई सिद्धिमणुत्तरं // 17 // -त्ति बेमि // विणयसमाहीए पढमो उद्देसो समत्तो // 9-1 / / [467] अनुत्तर (सर्वोत्कृष्ट ज्ञानादि गुणरत्नों) की सम्प्राप्ति का इच्छुक तथा धर्मकामी (निर्जराधर्माभिलाषी) साधु (ज्ञानादि रत्नों के) महान् आकर (खान), समाधियोग तथा श्रुत, शील, और प्रज्ञा से सम्पन्न महर्षि आचार्यों की आराधना करे तथा उनको (विनयभक्ति से सदा) प्रसन्न रखे / / 16 // [468] मेधावी साधु (पूर्वोक्त) सुभाषित बचनों को सुनकर अप्रमत्त रहता हुया प्राचार्य की शुश्रूषा करे / इस प्रकार वह अनेक गुणों की आराधना करके अनुत्तर (सर्वोत्तम) सिद्धि (मुक्ति) को प्राप्त करता है / / 17 / / -ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन-आचार्यों को पाराधना की विधि और फलश्रुति–प्रस्तुत दो गाथाओं (467468) में महागुणसम्पन्न प्राचार्यों की पाराधना साधक को क्यों और कैसे करनी चाहिए? यह बताकर उक्त आराधना के महाफल का प्रतिपादन किया गया है। महागरा० प्रादि : व्याख्या-प्रस्तुत पंक्ति में प्राचार्यों की विशिष्टगुणसम्पन्नता का उल्लेख किया गया है / यहाँ प्राचार्यों के छह विशेषण प्रयुक्त हैं--(१) महागरा : महाकर अर्थात्-प्राचार्य ज्ञानादि भावरत्नों के महान् पाक र (खान) हैं, (2 से 5) तथा समाहिजोग-समाधियोग से अर्थात् विशिष्ट ध्यान से, सुय-सीलबुद्धिए-श्रुत, शील और प्रज्ञा से, श्रुत अर्थात्-द्वादशांगी के अभ्यास से, शील अर्थात् परद्रोहविरतिरूप शील से और बुद्धि सद्-असद्-विवेकशालिनी प्रजा से अथवा प्रोत्पत्तिकी प्रादि बुद्धियों से संयुक्त हैं और (6) महेसी : दो रूप : दो अर्थ- (1) महषि-महान् ऋषि, (2) महेषी-मोक्षषी---मोक्षाभिलाषी हैं / 14 ऐसे महान् प्राचार्यों की आराधना क्यों करनी चाहिए ? इस विषय में इन दोनों गाथानों में साधु के जो विशेषण दिये गए हैं, वे ही कारण हैं—(१) क्योंकि साधु सर्वोत्कृष्ट जानादि भाव रत्नों को प्राप्त करने का इच्छुक है, (2) क्योंकि वह कर्मक्षयरूप निर्जराधर्म का आकांक्षी है, (3) क्योंकि वह मेधावी है, अर्थात्-मर्यादाशील है, अथवा स्वपरहित-बुद्धि से सम्पन्न है।'५ 14. (क) दशवै. (आचार्यश्री आत्मा.) पृ. 861 (ख) महागरा समाधिजोगाणं सुत्तस्सबारसंगस्स, सी लस्स य बुद्धिए य अथवा सुत-सील-बुद्धीए समाधिजोगाणं महागरा। --अगस्त्यचूणि, प. 208 (ग) 'महैषिणो मोक्षैषिणः, कथम् महैषिण ? इत्याह---समाधियोग-श्रुत-शील-बुद्धिभिः / समाधियोग:--- ध्यानविशेषः, थ तेन-द्वादशांगाभ्यासेन, शीलेन-परद्रोहविरतिरूपेण, बुद्धया च प्रोत्पतिक्यादिरूपया।' —हारि. वृत्ति, पत्र 246 15. दशवै. (प्राचार्यश्री प्रात्मारामजी म.), पत्राकार, पृ. 861, 863 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org