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________________ नवम अध्ययन : विनय-समाधि] [343 466. जहा ससी कोमुइजोगजुत्ते नक्खत्ततारागणपरिवुडप्पा। खे सोहई विमले अन्भमुक्के, एवं गणी सोहइ भिक्खुमज्झे // 1 // __ [465] जैसे रात्रि के अन्त (दिवस के प्रारम्भ) में प्रदीप्त होता हुआ (जाज्वल्यमान) सूर्य (अपनी किरणों से) सम्पूर्ण भारत (भारतवर्ष -- भरतक्षेत्र) को प्रकाशित करता है, वैसे ही प्राचार्य श्रुत, शील और प्रज्ञा से (विश्व के समस्त जड़-चैतन्य पदार्थों के) भावों को प्रकाशित करते हैं तथा जिस प्रकार देवों के बीच इन्द्र सुशोभित होता है, उसी प्रकार प्राचार्य भी साधुओं के मध्य में सुशोभित होते हैं / 14 / / [466] जैसे मेधों से मुक्त अत्यन्त निर्मल आकाश में कौमुदी के योग से युक्त, नक्षत्र और तारागण से परिवृत चन्द्रमा सुशोभित होता है, उसी प्रकार गणी (प्राचार्य) भी भिक्षुओं के बीच सुशोभित होते हैं / / 15 / / विवेचन साधुगण के मध्य आचार्य की शोभा-प्रस्तुत दो गाथा त्रों में आचार्य अतीव पूजनीय हैं. यह तथ्य तीन उपमानों द्वारा बतलाया गया है / निसंते-निशान्ते : भावार्थ-रात्रि का अन्त (व्यतीत) होने पर प्रभात के समय / कौमुदीयोगयुक्त कार्तिकी पूर्णिमा का चन्द्रमा / '2 प्रथम उपमा-रात्रि के व्यतीत होने पर प्रभात के समय देदीप्यमान सूर्य उदयाचल पर उदय होकर समग्र भरतखण्ड को प्रकाशित कर देता है, सोते हुए लोगों को जगाकर अपने-अपने कार्यों में उत्साहपूर्वक लगा देता है। उसी प्रकार श्रुत, (आगमज्ञान) से, शील (परद्रोहविरतिरूप संयम) से तथा (तर्कणारूप) प्रज्ञा से सम्पन्न प्राचार्य स्पष्ट उपदेश द्वारा जड़-चेतन पदार्थों के भावों को प्रकाशित करते हैं और शिष्यों को प्रबोधित कर प्रात्मशुद्धि के कार्य में पूर्ण उत्साह के साथ जुटा देते हैं। द्वितीय उपमा--देवलोक में सभी देवों के बीच रत्नासनासीन इन्द्र सुशोभित होते हैं, उसी प्रकार मनुष्यलोक में छोटे-बड़े सभी साधुओं के बीच पट्ट पर विराजमान संघनायक प्राचार्य सुशोभित होते हैं / ततीय उपमा-जिस प्रकार कार्तिक पूर्णिमा या शरदपूर्णिमा की विमल रात्रि में मेघमुक्त निर्मल आकाश में नक्षत्र और तारागण से घिरा हुमा चन्द्रमा सुशोभित होता है, वह अपनी अतिशुभ्र किरणों द्वारा अन्धकाराच्छन्न वस्तुनों को प्रकाशित करता है, दर्शकों के चित्त को आह्लादित करता है, इसी प्रकार गणाधिपति आचार्य भी साधुनों के बीच विराजमान होते हुए दर्शकों के चित्त को आह्लादित करते हैं तथा विशुद्ध श्रुतज्ञान द्वारा गूढ भावों को प्रकाशित करते हैं / 3 गुरु की आराधना का निर्देश और फल 467. महागरा आयरिया महेसो समाहिजोगे सुय-सील-बुद्धिए। संपाविउकामे अणुत्तराई पाराहए तोसए धम्मकामी // 16 // 12. 'कौमुदीयोगयुक्तः कार्तिकपौर्णमास्या मुदितः / ' --हारि. वत्ति, पत्र 246 13. दशवकालिक. (प्राचार्यश्री प्रात्मारामजी म.), पृ. 858-860 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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