________________ 342] [दशवकालिकसूत्र खड़े होना, उठकर सामने जाना, उनका पैर पोंछना, उन्हें आहार-पानी ला कर देना, रुग्णावस्था में उनकी सेवा करना, (पगचंपी करना, दवा लाना) इत्यादि / चौथी विनयभक्ति-वचन से सत्कार करने से होती है / यथा-कहीं पाते-जाते विनयपूर्वक 'मत्थएण वंदामि' कहना प्रसंगोपात्त गुरु के गुणगान, स्तुति, प्रशंसा आदि करना, गुरु द्वारा किसी कार्य की आज्ञा मिलने पर या गुरु द्वारा कोई शिक्षावचन कहे जाने पर 'तहत्ति' कह कर स्वीकार करना आदि। पांचवीं विनयभक्ति-मन से होती है। यथा-गुरु के प्रति अपने हृदय में पूर्ण अविचल श्रद्धा एवं भक्तिभावना रखना, गुरु को सर्वोपरि पूज्य मानना, उनको अपने व्यवहार से किसी भी प्रकार का क्लेश न हो, इसका ध्यान रखना / 'नित्य' शब्द यहाँ इसलिए दिया गया है कि यह गुरुभक्ति केवल शास्त्राध्ययन के समय में ही न हो, किन्तु सदैव, प्रत्येक परिस्थिति में करनी चाहिए।' लज्जा, दया आदि विशोधिस्थान क्यों ? - कल्याणभागी साधक के लिए लज्जा आदि आत्मा को विशुद्धि के स्थान इसलिए हैं कि लज्जा अर्थात्-अकरणीय या अपवाद का भय रहता है तो व्यक्ति पापकर्म करने से रुक जाता है, प्राणियों के प्रति दया के कारण भी हिंसा आदि में प्रवत्त नहीं होता, 17 प्रकार के संयम से जीवों की रक्षा करता है, पात्मभावों में रमण से परभाव या विभाव में प्रवृत्त होने से रुक जाता है। अत: ये सब कर्ममल को दूर करके आत्मा को विशुद्ध बनाने के कारण हैं / जे मे गुरू सययमणुसासयंति : इन (अात्मविशुद्धिक र गुणों) की गुरु मुझे सतत शिक्षा देते हैं, या जो गुरु मुझे सदैव हितशिक्षा देते हैं / " अनुशास्ता (गुरु) की इच्छा शिष्य को सदैव योग्य बनाने की होती है, इसलिए अनुशासन करने (शिक्षा देने वाले गुरुओं की सदैव पूजा---विनयभक्ति करनी चाहिए। गुरु (प्राचार्य) की महिमा 465. जहा निसते तवणच्चिमाली पभासई केवलभारहं तु / एवाऽऽयरियो सुय-सील-बुद्धिए विरायई सुरमझे व इंदो / / 14 / / 9. (क) दवै. (आचार्यश्री प्रात्मारामजी म.), पृ. 854 (ख) सिरसा पंजलीयो त्ति-एतेण पंचंमितस्स बंदणं गहणं / -अ. वृ., पृ. 208 (ग) पंचगीएण वंदणिएण तं जहा--जाणदुर्ग भूमीए निवडिग, हत्थदुएण भूमीए अवठंमिय, ततो सिरं पंचमं निवाएज्जा। —जिन. चूणि, पृ. 306 10. (क) अकरणिज्ज-संकणं लज्जा। -अ. चू., पृ. 208 (ख) अपवादभयं-लज्जा / -जि. चू., पृ. 306 (ग) दशवे. (प्राचार्यश्री प्रात्मारामजो म.), पृ. 856 11. (क) दसवेथालियं (मुनि नथमलजी), पृ. 429 (ख) दशवै. (प्राचार्यश्री आत्मारामजी म.), पृ. 556 www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only Jain Education International