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________________ नवम अध्ययन : विनय-समाधि] [339 रहने, गपशप करने या सोते रहने में राजी रहते हैं, इसी तरह जो प्रमादी हैं, जिन्हें पढ़ने-लिखने या सेवा करने में अरुचि होती है, ऐसे दुर्गुणों वाले साधक विनयधर्म की शिक्षा ग्रहण करने के अधिकारी नहीं हो सकते / आशातना : स्वरूप, प्रकार, कारण तथा दुष्परिणाम-अाशातना का अर्थ--सब ओर से विनाश करना या कदर्थना करना है / गुरु की अवहेलना, अवज्ञा या लघुता करने का प्रयत्न आशातना है। गुरु की आशातना अपने ही सम्यग्ज्ञान-सम्यग्दर्शन की अाशातना है। प्राशातना शब्द के विभिन्न अर्थ विभिन्न स्थलों में मिलते हैं-गुरु, प्राचार्य आदि के प्रतिकूल प्राचरण, उद्दण्डता, उद्धतता, विनयमर्यादारहित व्यवहार, गुरुवचन न मानना आदि / गुरुजनों को अवज्ञा अविनीत शिष्य दो प्रकार से करते हैं—सूया और असूया से ! सूया रीति वह है, जो ऊपर से तो स्तुतिरूप मालूम होती है परन्तु उसके गर्भ में निन्दारूप विषाक्त नदी बहती है। यथा-'गुरुजी विद्या में तो बृहस्पति से भी श्रेष्ठतर है, सभी शास्त्रों में इनकी अबाधगति है, इनके अनुभवों का तो कहना ही क्या ? पूर्ण वयोवृद्ध जो हैं / ये हमसे सभी प्रकार से बड़े हैं, प्रादि-आदि। असूयारीति वह है, जिसमें गुरु की प्रत्यक्ष रूप में निन्दा की जाती है। यथा-तुम्हें क्या प्राता है ! तुम से तो हम ही अच्छे, जो थोड़ा-बहुत शास्त्रीयज्ञान रखते हैं / अवस्था भी कितनी छोटी है ! हमें तो इन से अध्ययन करते लज्जा आती है, आदि / (1) इस प्रकार जो गुरु की हीलना--अवज्ञा करते हैं, वे गुरु की अाशातना करते हैं, वे मिथ्यात्व को प्राप्त करते हैं / (2) कई साधू वयोवद्ध होते हए भी ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम की कमी के कारण स्वभाव से ही अल्पप्रज्ञाशील होते हैं, इसके विपरीत कई साधु अल्पवयस्क होते हुए भी श्रुत और प्रज्ञा से सम्पन्न होते हैं। किन्तु ज्ञान में भले ही न्यूनाधिक हों, प्राचारवान् और सद्गुणों में सुदृढ़ ऐसे गुरुओं की अवज्ञा (आशातना) सद्गुणों को उसी तरह भस्म कर देती है, जिस प्रकार अग्नि क्षणमात्र में इन्धन के विशाल ढेर को भस्म कर देती है / (3) सर्प के छोटे-से बच्चे को छेड़ने वाला अपना अहित कर बैठता है। उसी प्रकार प्राचार्य को अल्पवयस्क समझ कर जो उनकी प्राशातना करता है, वह एकेन्द्रियादि जातियों में जन्ममरण करता रहता है। कदाचित् मंत्रादिबल से अग्नि पैर प्रादि को न जलाए, मंत्रादिबल से वश किया सांप भी कदाचित् डस न सके, मंत्रादिप्रयोग से तीव्र विष भी कदाचित् न मारे, किन्तु गुरु की की हई अाशातना के अशुभ फल से कभी छुटकारा नहीं हो सकता। उसके अशुभ फल भोगे विना कोई भी व्यक्ति मुक्त नहीं हो सकता। (4) गुरु की पाशातना पर्वत से अपना सिर टकराना है, सोये हुए सिंह को छेड़कर जगाना है, या भाले की नोक पर हथेली से प्रहार करना है / पर्वत से टकराने वाले का सिर चकनाचूर हो 3. दशवै. (प्राचार्यश्री पात्मारामजी म.) पृ. 834 4. (क) दसवेयालिय (मुनि नथ.), पृ. 431 / / (ख) दर्शव, (प्राचार्यश्री पात्मा.) पृ. 836-837 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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