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________________ 338] [दशवकालिकसूत्र विवेचन—गुरु को पाशातना के फल का निरूपण--प्रस्तुत 10 गाथाओं (452 से 461) में गुरुओं की आशातना के दुष्परिणामों का विविध उपमाओं द्वारा निरूपण किया गया है। विणयं न सिक्खे : व्याख्या गुरुदेव के समीप रह कर विनय नहीं सीखता अर्थात्-विनय का शिक्षण या अभ्यास नहीं करता / जिनदासचूणि में विनय के दो भेद किये गए हैं-ग्रहणविनय और आसेवनविनय / अगस्त्यणि एवं हारि. वृत्ति में 'ग्रहण' के बदले 'शिक्षा' शब्द मिलता है / ग्रहणविनय का अर्थ है-शास्त्रीय ज्ञान प्राप्त करना, साधु समाचारी, श्रमण धर्म आदि का शिक्षण लेना / प्रासेवनाविनय का अर्थ है-साध्वाचार एवं प्रतिलेखन-स्वाध्याय-ध्यान ग्रादि धर्मक्रिया का प्रशिक्षण या अभ्यास करना। व्यापक दृष्टि से देखा जाए तो दशाश्रुतस्कन्ध आदि में विनय का अर्थ-आदर, बहुमान, नम्रता, अनुशासन, मर्यादा, विशिष्ट नीति (कर्तव्यनिष्ठा) अनाशातना, संयम और आचार आदि हैं।' 'यंभा' आदि पदों के अर्थ थंमा-स्तम्भ से-~गर्व से / मयप्पमाया—माया और प्रमाद (मद, विषय, कषाय, निद्रा, विकथा असावधानी अालस्य आदि) वश / अभूइभावो : अभूतिभाव-भूति का अर्थ है वैभव या ऋद्धि, भूति का अभाव अभूतिभाव है, जिसका पर्यायवाची शब्द विनाशभाव है / कीयस्त वहाय हवा चलने से जो आवाज करता है, उस बांस को कीचक कहते हैं। वह फल लगते ही सूख जाता है और नष्ट हो जाता है। अत: कीचक बांस का फल उसके बिनाश के लिए होता है, उसी प्रकार अहंकार आदि दुर्गुण ज्ञान-दर्शन आदि गुणों, प्रात्मशक्तियों के विनाश (विकसित न होने देने के लिए होते हैं / ' विनयधर्म को ग्रहण न करने वाले कौन-कौन ?--प्रस्तुत गाथा (452) में बताया गया है कि जो जाति कल. बल. रूप ग्रादि का अहंकार करते हैं, जो क्रोधी हैं, बातहो जाते हैं, गुरु से शिक्षा लेते समय जिनकी त्योरियाँ चढ़ जाती हैं ; जो मायावी हैं, शिक्षा पाने के डर से –'आज मेरे पेट में दर्द है' या 'मस्तक दुख रहा है,' इत्यादि-छल-कपट करके बेकार बैठे 1. (क) जिनदासचूणि, पृ. 302 : विनयेन न तिष्ठति, नासेवत इत्यर्थ: / विणये दुविहे-गहण विणए, . आसेवणाविणए। (ख) विनयं प्रासेवना—शिक्षाभेद भिन्नम् / --हारि. वृत्ति, 242 पत्र (ग) दशाथ तस्कन्ध, दशा 4 (घ) दसवेयालियं (मु. नथमलजी) पृ. 430 (ङ) दशबै. (संतबालजी) पृ. 119 2. (क) दशवै. (प्राचार्यश्री पात्मारामाजी म.) पृ. 832 (ख) मायातो निकृतिरूपायाः। -हारि. वत्ति, पत्र 242 (ग) प्रमादग्रहणेन-निहाविक्रहादिपमादट्ठाणा गहिया। अभूतिभावो नाम प्रभुतिभावो त्ति वा विणासभावो त्ति वा एगट्ठा / -जिन. चूणि, पृ. 302 (घ) भूतिभाको ऋद्धी, भूतीए अभावो अभूतिभावो-प्रसंपद्भाव इत्यर्थः / कीयो बसो, सो य फलेण सुक्खति / -अगस्त्यचूणि, पृ. 206 (ङ) 'स्वनन् वातास स की चकः / ' -अभिधानचिन्तामणि, 4.219 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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