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________________ नवम अध्ययन : बिनप-समाधि] [337 ___ [452] (जो साधक) गर्व, क्रोध, माया और प्रमादवश गुरुदेव के समीप विनय नहीं सीखता, (उसके) वे (अहंकारादि दुर्गुण) ही वस्तुतः उस (साधु) के ज्ञानादि वैभव के (उसी प्रकार) विनाश के लिए होते हैं, जिस प्रकार बांस का फल उसी के विनाश के लिए होता है / / 1 / / [453] जो (अविनीत साधु) गुरु की 'ये मन्द (मन्दबुद्धि) हैं, ये अल्पवयस्क हैं तथा अल्पश्रुत हैं' ऐसा जान कर हीलना करते हैं, वे मिथ्यात्व को प्राप्त करके गुरुओं की आशातना करते हैं / / 2 / / [454] कई (वयोवृद्ध प्राचार्य) स्वभाव (प्रकृति) से ही मन्द होते हैं और कोई अल्पवयस्क (होते हए) भी श्रत (शास्त्रज्ञान) और बुद्धि से सम्पन्न होते हैं। वे प्राचारवान और गणों में सुस्थितात्मा (प्राचार्य चाहे मन्द हों या प्राज्ञ) अवज्ञा (हीलना) किये जाने पर (गुणराशि को उसी प्रकार) भस्म कर डालते हैं, जिस प्रकार इन्धनराशि को अग्नि ||3 // [455] जो कोई ( अज्ञ साधक ) सर्प को 'छोटा बच्चा है' यह जान कर उसकी पाशातना (कदर्थना) करता है, वह (सर्प) उसके अहित के लिए होता है, इसी प्रकार (अल्पवयस्क) प्राचार्य की भी अवहेलना करने वाला मन्दबुद्धि भी संसार में जन्म-मरण (या एकेन्द्रियादि जाति) के पथ पर गमन (परिभ्रमण) करता है / / 4 / / [456] अत्यन्त क्रुद्ध हुआ भी आशीविष सर्प जीवन-नाश से अधिक और क्या कर सकता है ? परन्तु अप्रसन्न हुए पूज्यपाद प्राचार्य तो अबोधि के कारण बनते हैं, (जिससे प्राचार्य की) आशातना से मोक्ष नहीं मिलता // 5 // [457] जो प्रज्वलित अग्नि को (पैरों से) लांघता-मसलता है, अथवा आशीविष सर्प को (छेड़कर) कुपित करता है, या जीवितार्थी (जीवित रहने का अभिलाषी) होकर (भी) जो विष. भक्षण करता है, ये सब उपमाएँ गुरुओं की अाशातना के साथ (घटित होती हैं) / / 6 / / _ [458] कदाचित् वह (प्रचण्ड) अग्नि (उस पर पैर रख कर चलने वाले को) न जलाए, अथवा कुपित हुआ प्राशी विष सर्प भी (छेड़खानी करने वाले को) न डसे, इसी प्रकार कदाचित् वह हलाहल (नामक तीव्र विष) भी (खाने वाले को) न मारे; किन्तु गुरु की अवहेलना से (कदापि) मोक्ष सम्भव नहीं है / / 7 / / __[456] जो (मदान्ध) पर्वत को सिर से फोड़ना चाहता है, अथवा सोये हुए सिंह को जगाता है, या जो शक्ति (भाले) की नोक पर (हाथ-पैर आदि से) प्रहार करता है, गुरुओं की अाशातना करने वाला भी इनके तुल्य है // 8 // [460] सम्भव है, कोई अपने सिर से पर्वत का भी भेदन कर दे, कदाचित् कुपित हुआ सिंह भी (उस जगाने वाले को) न खाए, अथवा सम्भव है भाले की नोंक भी (उस पर प्रहार करने वाले का) भेदन न करे; किन्तु गुरु की अवहेलना से मोक्ष (कदापि) सम्भव नहीं है / / 6 / / [461] आचार्यप्रवर के अप्रसन्न होने पर बोधिलाभ नहीं होता तथा (उनकी) पाशातना से मोक्ष नहीं मिलता / इसलिए निराबाध (मोक्ष) सुख चाहने वाला साधु गुरु की प्रसन्नता (कृपा) के अभिमुख होकर प्रयत्नशील रहे / / 10 / / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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