________________ 340] [दशवकालिकसूत्र जाता है, सिंह को जगाने वाला स्वयं काल-कवलित हो जाता है और भाले की नोक पर प्रहार करने वाले के अपने हाथ-पैर से रक्तधारा बहने लगती है। इसी प्रकार गुरु की अाशातना करने वाला अविवेकी अपना ही अहित करता है। इहलोक-परलोक दोनों में अतीव दुःख पाता है / इसलिए अनाबाध सुखरूप मोक्ष के अभिलाषी साधक को सदैव गुरु की सेवा-शुश्रूषा एवं भक्ति करके उन्हें प्रसन्न रखने का प्रयत्न करना चाहिए। यह इन गाथाओं का तात्पर्य है / पगईए मंदा-क्षयोपशम को विचित्रता के कारण कई स्वभाव से शास्त्रीययुक्तिपूर्वक व्याख्या करने में असमर्थ होते हैं, कई स्वभाव से मंद-अल्पप्रज्ञ होते हुए भी अतिवाचाल नहीं होते, उपशान्त होते हैं। निअच्छई जाइपहं-एकेन्द्रियादि योनियों में चिरकाल तक भ्रमण करता है, अथवा जाति यानी जन्म, वध यानी मरण- अर्थात् चिरकाल तक जन्म-मरण को पाता है, या जातिमार्ग अर्थात्-संसार में आवागमन--परिभ्रमण करता है। गुरु (आचार्य) के प्रति विविध रूपों में विनय का प्रयोग 462. जहाऽऽहियग्गी जलणं नमसे नाणाहुईमंतफ्याभिसित्तं / एवाऽऽयरियं उचिट्ठएज्जा अणतणाणोवगओ वि संतो // 11 // 463. जस्संतिए धम्मपयाई सिक्खे, तस्संतिए वेणइयं पउंजे / सक्कारए सिरसा पंजलीओ कायरिंगरा भो ! मणसा य निच्चं // 12 // 464. लज्जा क्या संजम बंभचेरं कल्लाणभागिस्स विसोहिठाणं। जे मे गुरू सययमणुसासयंति, ते हं गुरू सययं पूययामि // 13 // [462] जिस प्रकार आहिताग्नि (अग्निपूजक) ब्राह्मण नाना प्रकार की आहुतियों और मंत्रपदों से अभिषिक्त की हुई अग्नि को नमस्कार करता है, उसी प्रकार शिष्य अनन्तज्ञान-सम्पन्न हो जाने पर भी प्राचार्य की विनयपूर्वक सेवा भक्ति करे / / 11 / / [463] जिसके पास धर्म-(शास्त्रों के) पदों का शिक्षण ले, हे शिष्य ! उसके प्रति विनय (-भक्ति) का प्रयोग करो। सिर से नमन करके, हाथों को जोड़ कर तथा काया, वाणी और मन से सदैव सत्कार करो / / 12 // 5. दशवे. (आचार्यश्री आत्मारामजी म.) पृ. 837 से 850 6. (क) क्षयोपशमवैचित्र्यात् तंत्रयुक्त्याऽऽलोचनाऽसमर्थः सत्प्रज्ञाविकल इति। जातिपन्थानं-द्वीन्द्रियादि जातिमार्गम् / .-हारि. वृत्ति, पत्र 244 'पगई' ति सूत्र---प्रकृत्या स्वभावेन, कर्मवैचिन्यात मंदा अपि सद्बुद्धिरहिता अपि एके-केचन वयोवृद्धा अपि। -हारि. वृत्ति, पत्र 244 (ग) स्वभावो-पगती, तीए मंदा वि णातिवायाला उवसंता / "जाती-समुप्पत्ती वधो-मरणं, जन्ममरणाणि, अथवा जातिपथं-जातिमग्ग-संसारः।" --अगस्त्यचूणि, पृ. 207 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org