________________ अष्टम अध्ययन : आचार-प्रणिधि] [327 इत्थीविग्गहओ भयं : अभिप्राय-यहाँ 'स्त्री से भय है', ऐसा न कह कर स्त्रीविग्रह (नारीशरीर) से भय है, इसका फलितार्थ यह है कि स्त्रीसंसर्ग, स्त्रीपरिचय, स्त्री के साथ निवास अथवा विकारी दृष्टि से उसके हावभाव, कटाक्ष, अंगोपांग, चित्रित-विभूषित स्त्री आदि का प्रेक्षण साधु के लिए वजित है। यहाँ तक कि मृतक स्त्रीशरीर भी भयकारी हैं। हत्थपायपडिच्छिन्न प्रादि गाथा का फलितार्थ-यहाँ 'अपि' शब्द सम्भावनार्थ है, अतः यह सम्भावना की जा सकती है कि जब हाथ-पैर कटी हुई विकलांग शतवर्षीया वृद्धा के संसर्ग से दूर रहने का कहा गया है, तब वह स्वस्थ एवं सर्वांगपूर्ण तरुण नारी से दूर रहे, इसमें कहना ही क्या है ? 63 __ अत्तगवेसिस्स : आत्मगवेषी--जिसने अात्मा के हित का अन्वेषण कर लिया, उसने आत्मा का अन्वेषण कर लिया। आत्मगवेषणा प्रात्मा के हिताहित के सन्दर्भ में की जाती है / दुर्गतिगमन, 63. (क) 'अन्यार्थ प्रकृतं'--न साधुनिमित्तं निर्वतितम् / ' -हारि. वृत्ति, पत्र 236 (ख) अन्नट्ठगहणेण अन्न उत्थिया गहिया, अन्नस्स अट्ठाए नाम अन्ननिमित्तं पगडं-पकप्पियं भण्णइ / -जिन. चूणि, पृ. 290 ग) ......" विवज्जियं नाम जत्थ तेसि आलोयमादीणि णत्थि तं विवज्जियं भण्णइ, तत्थ आत-पर-समुत्था दोसा भवं तित्ति काउंण ठाइयब्वं / तीए विविताए सेज्जाए नारीणं णो कहं कहेज्जा। कि कारणं ? पात-पर-समुत्था दोसा भवंतित्ति काउं। --वही, चणि, पृ. 290 (घ) तत्थ जतिच्छोवगताण वि नारीण सिंगारातिगं विसेसेण ण कधे कह। को पण निबंधो, जं विवित्तलय पत्थितेणावि कहंचि उपगताण नारीण कहा ण कथनीया ? भग्णति / वत्स ! न णु चरित्तवतो महाभयमिदं इत्थी-णाम कहं। --ग. चणि, पृ. 198 / (ङ) बितियं-नारीजणस्स मझे न कहेयव्वा कहा विचित्ता। ----प्रश्न. संवरद्वा 4 (च) नो स्त्रीणां कथाः कथयिता भवतीति / समवा. वृत्ति, पत्र 15 . (छ) स्त्रीणां केवलानामिति गम्यते, कथां धर्मदेशनादि-लक्षणवाक-प्रतिबन्धरूपां / यदि वा 'कर्णाटो सुरतोप चारकुशला,' इत्यादि प्रागुक्तां वा जात्यादिचातुर्यरूपां कथां कथयिता.."। -ठा. 9.3 वृ. (ज) गिहिसंयवं--गृहिपरिचयं न कुर्यात् / तत्स्नेहादिदोषसंभवात् / कुर्यात् साधुभिः संस्तव-परिचयं, कल्याणमित्रयोगेन, कुशलपक्षवृद्धिभावतः / -हारि. वृत्ति, पत्र 237 (झ) विम्यहो सरीरं भण्णइ / ग्राह--इत्थीयो भयंति भाणियब्वे ता किमत्थं विम्यहम्गहणं कयं ? भण्णति; न केवलं सज्जीव इस्थिसमीवानो भयं किन्तु ववगतजीवाए वि सरीरं, ततो वि भयं भवई। अनो विगह गहणं कयं ति। —जिन. चूणि, पृ. 291 (अ) दशवं. (संतबालजी) पृ. 115 (ट) अवि सद्दो संभावणे वट्टइ / कि संभावयति ? जहा-जइ हत्थादिविच्छिन्ना वि वाससयजीवी दूरग्रो परिवज्जणिज्जा, कि पूण जा अपलिच्छिन्ना वयत्था वा ? एयं संभावयति। --जिन. चूणि, पृ. 291 इत्यसविविधता विजन पूजी,पृ. इस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org