________________ 326] दिशवकालिकसूत्रं [444] प्रात्मगवेषी पुरुष के लिए विभूषा, स्त्रीसंसर्ग और स्निग्ध (प्रणीत) रस-युक्त (सरस) भोजन तालपुट विष के समान है / / 56 / / [445] स्त्रियों के (शृगाररसप्रसिद्ध) अंग, प्रत्यंग, संस्थान, चारु-भाषण (मधुर बोली) और कटाक्ष (मनोहर-प्रेक्षण) के प्रति (साधु) ध्यान न दे (गौर से न देखे); (क्योंकि ये सब) कामराग को बढ़ाने वाले (ब्रह्मचर्य-विघातक) हैं / / 57 / / [446] (ब्रह्मचारी) शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श, इन पुद्गलों के परिणमन को अनित्य जान कर मनोज्ञ विषयों में रागभाव स्थापित न करे // 58 / / [447] उन (इन्द्रियों के विषयभूत) पुद्गलों के परिणमन को जैसा है, वैसा जान कर अपनी प्रशान्त (शीतल हुई) प्रात्मा से तृष्णारहित होकर विचरण करे / / 5 / / विवेचन-ब्रह्मचर्य की गुप्तियों के सन्दर्भ में प्रस्तुत 6 गाथाओं (436 से 447 तक) में ब्रह्मचर्यमहाव्रत की रक्षा के लिए ब्रह्मचर्य व्रत की नौ बाड़ों के सन्दर्भ में कतिपय स्वर्णसूत्र दिये ब्रह्मचर्यगुप्ति के लिए दस स्वर्णसूत्र-(१) परकृत उच्चारभूमियुक्त स्त्री-पशु-नपुंसक रहित स्थान, शयन और प्रासन का सेवन करे / (2) विविक्त स्थान में स्थित अकेला साधु केवल स्त्रियों के बीच धर्मकथा न करे। (3) गृहस्थों से परिचय न करके साधुओं से परिचय करे। (4) मुर्गे के बच्चे को बिल्ली से भय होता है, वैसे ही साधु को स्त्रीशरीर से खतरा है। (5) दीवार पर चित्रित या विभूषित नारी को टकटकी लगा कर न देखे, कदाचित् दृष्टि पड़ जाए तो तुरंत वहाँ से हटा ले / (6) हाथ-पैर कटी हुई विकलांग सौ वर्ष की वृद्धा के संसर्ग से भी दूर रहे। (7) विभूषा, स्त्रीसंसर्ग और स्निग्ध सरसभोजन तालपुटविष के समान है। (8) स्त्रियों के अंगोपांग, मधुर भाषण, कटाक्ष आदि की ओर ध्यान न दे, विकारी दृष्टि से न देखे, क्योंकि ये कामरागवर्द्धक हैं। (6) मनोज्ञ इन्द्रियविषयों के प्रति रागभाव न रखे। (10) पुद्गलों के परिणमनरूप विषयों को यथावत् जान कर उनके प्रति अनासक्त एवं उपशान्त होकर विचरण करे / 62 'अन्नपगडं' प्रादि शब्दों के विशेषार्थ अन्नपगडं-अन्यार्थ प्रकृत-निर्ग्रन्थ श्रमणों के अतिरिक्त अन्य के लिए निर्मित / 'अन्य' शब्द से सूचित होता है कि वह चाहे गृहस्थ के लिए बना हो या अन्य तीथिकों के लिए, साधु उसमें निवास कर सकता है / लयनं का अर्थ घर या निवासगृह है। इत्थीपसुविवज्जियं : स्त्रीपशुविजित: तात्पर्य है जहाँ स्त्री, पशु और नपुसक से संसक्त, बार-बार आवागमन होता हो या रात्रिनिवास हो अथवा जहाँ ये दीखते हों, वहाँ साधु को रहना वजित है। नारीणं न लवे कहं-(१) स्त्रियों को कथा न कहे अथवा (2) स्त्रियों की कथा न कहे / गिहिसंथवं न कुज्जा का तात्पर्य यह है कि गृहस्थ के अतिसंसर्ग के कारण आसक्ति तथा आचारशैथिल्य आदि दोषों की सम्भावना है / 62. दसवेयालियसुत्तं (मूलपाठ-टिप्णयुक्त) पृ.६०-६१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org