________________ अष्टम अध्ययन : आचार-प्रणिधि] 1325 441. जहा कुक्कुडपोयस्स निच्चं कुललो भयं / एवं खु बंभयारिस्स इत्यीविग्गहओ भयं // 53 // 442. चित्तमित्ति न निज्माए, नारि वा सुअलंकियं / भक्खरं पिव दळूणं दिट्टि पडिसमाहरे // 54 // 443. हत्थ-पाय-पडिच्छिन्न + कण्ण-नास-विगप्पियं / अवि वाससइं:- नारि बंभयारी विवज्जए // 55 / / इत्थिसंसग्गो पणीयरसभोयणं / नरस्सऽत्तगवेसिस्स विसं तालउडं जहा // 56 // 445. अंग-पच्चंग-संठाणं चारुल्लविय-पेयिं / इत्थीणं तं न निज्माए कामराग-विवड्ढणं // 57 // 446. विसएसु मणुण्णेसु पेमं नाभिनिवेसए / अणिच्चं तेसि विण्णाय परिणामं पोग्गलाण x य // 5 // 447. पोग्गलाण परिणामं तेसि णच्चा जहा तहा। विणीयतण्हो* विहरे सीईभूएण अप्पणा / / 59 / / [436] (मुनि) दूसरों के लिए बने हुए, उच्चारभूमि (मल-मूत्र-विसर्जन की भूमि) से युक्त तथा स्त्री और पशु (उपलक्षण से नपुंसक के संसर्ग) से रहित स्थान (उपाश्रय), शय्या और प्रासन (पादि) का सेवन करे // 51 // [440] यदि उपाश्रय (स्थानक या निवासस्थान) विविक्त (एकान्त-अन्य साधुओं से रहित) हो तो (वहाँ अकेला मुनि) केवल स्त्रियों के बीच (धर्म-) कथा (व्याख्यान) न कहे; (तथा मुनि) गृहस्थों के साथ संस्तव (अतिपरिचय) न करे, (अपितु) साधुओं के साथ ही परिचय करे // 52 / / [441] जिस प्रकार मुर्ग के बच्चे को बिल्ली से सदैव भय रहता है, इसी प्रकार ब्रह्मचारी को स्त्री के शरीर से भय होता है // 53 // [442] चित्रभित्ति (स्त्रियों के चित्रों से चित्रित या युक्त दीवार) को अथवा (वस्त्राभूषणों से) विभूषित (सुसज्जित) नारी को टकटकी लगा कर न देखे / कदाचित् सहसा उस पर दृष्टि पड़ जाए तो दृष्टि तुरंत उसी तरह वापस हटा ले, जिस तरह (मध्याह्नकालिक) सूर्य पर पड़ी हुई दृष्टि हटा ली जाती है / / 54 / / [443] जिसके हाथ-पैर कटे हुए हों, जो कान और नाक से विकल हो, वैसी सौ वर्ष की (पूर्णवृद्धा) नारी (के संसर्ग) का भी ब्रह्मचारी परित्याग कर दे // 55 // पाठान्तर-+पलिच्छिन्न। वाससयं / x उ / *विणीय-तिण्हो। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org