________________ 324 दिशकालिकसूत्र व्यक्त अर्थात्-स्पष्ट हो, जो गुनगुनात्मक न हो। जियं-जो परिचित हो, जिसका अर्थ परिचित हो / अयंपिरं-- अजल्पित-- जो भाषा केवल बकवास या वाचालता न हो तथा अनुद्विग्न उद्वेगरहित हो / पायारपन्नत्तिधरं दिदिवायमहिज्जगं : विविध व्याख्याएँ-(१) पहली व्याख्या शास्त्रपरक है, जो अर्थ में दी गई है। दूसरी व्याख्या भाषाशास्त्रपरक है। अर्थात्-आचारधर-स्त्री-पुरुष-नपुंसक लिंग-ज्ञाता, प्रज्ञप्तिधर-लिंगों का विशेष ज्ञाता तथा दृष्टिबादधर---प्रकृति, प्रत्यय, लोप, पागम, वर्णविकार, कारक आदि व्याकरण के अंगों को जानने वाला / नियुक्तिकार के अनुसार इनकी व्याख्या धर्मकथापरक है। आक्षेपणी कथा के 4 प्रकार हैं-प्राचारकथा, व्यवहारकथा, प्रज्ञप्तिकथा और दृष्टिवादकथा / आचार-लोच, अस्नान आदि, व्यवहार—किसी दोष की शुद्धि करने के लिए प्रायश्चित्त रूप व्यवहार, प्रज्ञप्ति-संशयग्रस्त व्यक्ति को मधुर वचनों से समझाना और दष्टिवादश्रोता की अपेक्षा (दष्टि) से सूक्ष्म जीवादि भावों का कथन करना / समग्र वाक्य का अर्थ हुआ प्राचारधर, प्रज्ञप्तिधर और दृष्टिवाद का अध्येता (पाठक) यदि कहीं बोलने में चूक गया हो तो उसका उपहास न करे / / ब्रह्मचर्य गुप्ति के विविध अंगों के पालन का निर्देश 439. अन्नट्ठ पगडं लेणं भएज्ज सयणाऽऽसणं / उच्चारभूमिसंपन्न इत्थी-पसु-विवज्जियं // 51 // 440. विवित्ता य भवे सिज्जा, नारोणं न लवे कहं / गिहिसंथवं न कुज्जा, कुज्जा साहहिं संथवं // 52 // 60. (क) दि8 नाम जं चक्खुणा सयं उवलद्ध। मितं दुविहं / सद्दयो परिमाणमो य / सद्दयो प्रणउव्वं उच्चारिज्जमाणं मितं, परिमाणो कज्जमेत्तं उच्चारिज्जमाणं मितं / पडुप्पन्नं नाम सर-वंजण-पयादीहिं उववेयं / -जिन. चु., पृ. 289 (ख) अणुच्चं कज्जमेतं च मितं / वियं व्यक्तं / जितं न बामोहकरमणेकाकारं / नाणदंसणचरित्तमयो जस्स आया अस्थि सो अत्तवं / अ. चू., पृ. 197 (ग) 'दृष्टां दृष्टार्थ विषयाम् / जितां परिचिताम् / ' हारि. वृत्ति, पत्र 235 61. (क) प्राचारधर द्वादशांगी में प्रथम अंग प्राचारांग के धारक, प्रज्ञप्तिधर-पांचवें अंग व्याख्याप्रज्ञप्ति के धारक और दष्टिवाद-अध्येता-बारहवें अंग दष्टिवाद का पढ़ने वाला। -दशवै. (प्रा. प्रात्मा.) पृ. 806 (ख) आचारधरः स्त्रीलिंगादीनि जानाति, प्रज्ञप्तिधरस्तान्येव सविशेषाणीत्थेवंभूतम् / तथा दष्टिवाद मधीयानं-प्रकृति-प्रत्यय-लोपागम-वर्णविकार-कालकारकादिवेदिनम्। —हारि. टी., प. 236 (ग) प्राचारो-लोचास्नानादिः ब्यवहारः कथंचिदापनदोषव्यपोहाय प्रायश्चित्तलक्षण: प्रज्ञप्तिश्चैव संशयापन्नस्य मधुरवचन: प्रज्ञापना दृष्टिवादश्च / श्रोत्रपेक्षया सूक्ष्मजीवादिभावकथनम् ! -हारि. टी., प. 110 (घ) ठाणांग 4 / 247 : आयार-अक्खेवणी. दिट्ठीवातप्रक्खे वेणी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org