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________________ अष्टम अध्ययन : आचार-प्रणिधि] [321 होती है / गुरु के आगे अर्थात्-गुरु के सम्मुख एकदम निकट बैठने से अविनय भी होता है, और गुरु को वन्दना करने वालों को व्याघात होता है। इस दृष्टि से गुरु के आगे न बैठने का निर्देश किया गया है / पृष्ठभाग में अर्थात् पीठ पीछे था गुरु की पीठ से सट कर बैठने से गुरु के दर्शन नहीं होते, उनकी कृपापूर्ण दृष्टि शिष्य पर नहीं पड़ने पाती। उनके इंगित और आकार को नहीं जाना जा सकता। इसलिए पीछे बैठने का निषेध किया गया है। गुरु के उरु से अपना उरु सटा कर बैठना भी अविनय-पाशातना और असभ्यता प्रदर्शन है। सारांश यह है कि इस गाथा में गुरुजनों की पर्युपासना करते समय इस ढंग से नहीं बैठना चाहिए, जिससे उनकी अविनय-पाशातना हो, असभ्यता प्रदर्शित हो।५६ स्व-पर-अहितकर भाषा-निषेध 434. अपुच्छिनो न भासेज्जा भासमाणस्स अंतरा। पिटि मंसं न खाएज्जा, मायामोसं विवज्जए / / 46 / / 435. अप्पत्तियं जेण सिया, प्रासु कुप्पेज्ज वा परो। सव्वसो तं न भासेज्जा भासं अहियगामिणि // 47 // 436. दिळं मियं असंदिद्ध पडिपुण्णं वियं जियं / अयंपिरमणुविरगं भासं निसिर अत्तवं // 48 // 437. आयारपण्णत्तिधरं दिढिवायमहिज्जगं / वह विक्खलियं णच्चा न तं उवहसे मुणी // 49 // 438. नक्खत्तं सुमिणं जोगं निमित्तं मत भेसज / गिहिणो तं न प्राइक्खे भूयाहिगरणं पयं // 50 // [434] (विनीत साधु गुरुजनों के बिना पूछे न बोले, (वे) बात कर रहे हों तो बीच में न बोले / पृष्ठमांस (चुगली) न खाए और मायामृषा (कपटसहित असत्य) का वर्जन करे / / 46 / / [435] जिससे (जिस भाषा के बोलने से) अप्रीति (या अप्रतीति) उत्पन्न हो अथवा दूसरा (सुनने वाला व्यक्ति) शीघ्र ही कुपित होता हो, ऐसी अहित करने वाली भाषा सर्वथा न बोले // 47 / / [436] अात्मवान् (आत्मार्थी साधु या साध्वी) दृष्ट (देखी हुई), परिमित, असंदिग्ध, परिपूर्ण, व्यक्त (स्पृष्ट या प्रकट), परिचित, अजल्पित (वाचालतारहित) और अनुद्विग्न (भयरहित) भाषा बोले / / 4 / / 56. (क) “समुप्पेहपेरिया सद्दपोग्गला कण्णबिलमणुपविसंतीति कण्णसमसेढी पक्खो, ततो न चिढ़े गुरूणमंतिए तधा अणे गग्गता भवति / " ---अ. चू., पृ. 196 (ख) पुरनो नाम अग्गो, तत्थवि अविणो वंदमाणाणं च वग्घाओ, एवमादि दोसा भवं तित्ति काऊण पुरो गुरूण नवि चिट्ठज्जत्ति। -जिन. चूणि, पृ. 288 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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