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________________ 320] [दशवकालिक सूत्र गुरु की पर्युपासना करने की विधि 432. हत्थं पायं च कायं च पणिहाय जिइंदिए / अल्लोणगुत्तो निसिए सगासे गुरुणो मुणी // 44 // 433. न पक्खओ न पुरो, नेव किच्चाण पिढओ। न य ऊरु समासेज्जा चिट्ठज्जा गुरुणंतिए // 45 // [432] जितेन्द्रिय मुनि (अपने) हाथ, पैर और शरीर को संयमित करके प्रालीन (न अतिदूर और न अतिनिकट) और गुप्त (मन और वाणी से संयत) होकर गुरु के समीप बैठे / / 44 / / [433] आचार्य आदि के न तो पार्श्वभाग (बराबर) में, न आगे और न ही पृष्ठभाग में (पीछे) बैठे तथा गुरु के समीप (उनके ऊरु से अपना) ऊरु सटा कर (भी) न बैठे / / 45 / / विवेचन----गुरुजनों के समीप बैठने की विधि-प्रस्तुत दो गाथाओं (432-433) में गुरुजनों की पर्युपासना करते समय उनके समीप बैठने की विधि का प्रतिपादन किया है / पूर्वगाथा में बहुश्रुत पूज्यवरों की पर्युपासना करने का निर्देश था, इन दो गाथाओं में पर्युपासना की विधि बताई गई है / 'पणिहाय' प्रादि पदों का विशेषार्थ-पणिहाय-संयमित होकर / इसके दो विशेषार्थ मिलते हैं--(१) गुरु के समीप बैठते समय अपने हाथ, पैर आदि शरीर के अवयवों को संकोच कर पूर्ण सभ्यता से बैठना, (2) हाथों को न नचाना, पैरों को न फैलाना आदि एवं शरीर को बार-बार न मोड़ना या कुचेष्टा न करना / अल्लीणगुत्तो पालोनगुप्त-दो विशेषार्थ (1) आलीन-ईषल्लीनउपयोगयुक्त हो कर / (2) तात्पर्य है-गुरु के न अतिनिकट और न अतिदूर बैठने वाला, तथा गुप्त का अर्थ होता है-मन से गुरु के वचन में उपयोगयुक्त और वचन से प्रयोजनवश बोलने वाला / किच्चाण-गुरुओं या प्राचार्यों-बहुश्रुत पूज्यवरों के / उरु समासेज्जा : दो विशेषार्थ--(१) जांघ पर जांध चढ़ा कर, (2) गुरु के ऊरु से अपने अरु (घटने के ऊपर का भाग-साथल) का स्पर्श कर। उत्तराध्ययन सूत्र के 'न जंजे उरुणा उरु' के अर्थ से यह अर्थ अधिक मेल खाता है।" बराबर में, आगे या पीछे बैठने का निषेध क्यों ?---यह पंक्ति भी गुरु की उपासना करते समय उनकी अविनय-पाशातना न हो, असभ्यता प्रकट न हो, इस दृष्टि से दी गई है। गुरु के पार्श्वभाग में अर्थात् बराबर में-कानों की समश्रेणि में बैठने का निषेध इसलिए किया गया है कि वहाँ बैठने पर शिष्य का शब्द सीधा गुरु के कर्णकुहरों में आता है। उससे गुरु की एकाग्नता भंग 55. (क) पणिहाय णाम हत्थेहि हत्थनट्टगादीणि अकरं पाएहिं पसारणादीणि अकुव्वतो, कारण सासणदृगादी णि अकुव्वंतो। -जिन, चूणि, पृ. 288 (ख) अल्लीणो नाम ईसिलीणो अल्लीणो, णातिदरत्थो ण वा अच्चासणो / ..."वायाए कज्जमत्त भासतो / —जि. चणि, पृ. 288 (ग) मणसा गुरुवयणे उवयुत्तो ।-अ. चू., पृ. 196 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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