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________________ अष्टम अध्ययन : आचार-प्रणिधि] [319 श्रमणधर्म का आशय-व्याख्याकारों ने यहाँ 'श्रमणधर्म' के दो प्राशय व्यक्त किये हैं—(१) क्षमा, मार्दव, आर्जव, निर्लोभता, लाघव, सत्य, संयम, तप, त्याग, ब्रह्मचर्य यह दशविध श्रमणधर्म है / (2) अनुप्रेक्षा, स्वाध्याय और प्रतिलेखन आदि श्रमणचर्या श्रमणधर्म हैं / सूत्रकार का यहाँ प्राशय यह है कि अनुप्रेक्षा काल में मन को, स्वाध्याय काल में वचन को और प्रतिलेखन काल आदि में काया को श्रमणधर्म में संलग्न कर देना चाहिए तथा भंगप्रधान (विकल्पप्रधान) श्रुत (शास्त्र) में समुच्चयरूप से तीनों योगों को नियुक्त करना चाहिए। अर्थात्-उसमें मन से चिन्तन, वचन से उच्चारण और काया से लेखन, ये तीनों होते हैं।" अटुं लहइ अणुत्तरं : व्याख्या-श्रमणधर्म में युक्त-व्यापृत (लगा हुया) साधु अनुत्तर अर्थ को प्राप्त करता है। अनुत्तर अर्थ का अर्थ है--सर्वश्रेष्ठ पुरुषार्थ अर्थात् मोक्ष या उसके साधन ज्ञानादि।१२ इहलोग-पारत्तहियं इत्यादि गाथा की व्याख्या-दो प्रकार की मिलती है--(१) श्रमणधर्मपरक ओर (2) सम्यग्ज्ञान-परक / प्रथम व्याख्या के अनुसार इस गाथा का तात्पर्य यह है कि श्रमणधर्म में मन-वचन-काय को नियुक्त करने वाला इहलोक में बन्दनीय होता है,--श्रमणधर्म में एक दिन के दीक्षित साधु को भी लोग विनयपूर्वक वन्दन करते हैं, राजा-रानी द्वारा भी उसकी पूजा-प्रतिष्ठा होती है और परलोक में भी वह अच्छे कुल या स्थान में उत्पन्न होता है। इस उपलब्धि के लिए दो उपाय बताए हैं-बहुश्रुत की पर्युपासना और उनसे पूछ कर अर्थ का विनिश्चय करना / दूसरी व्याख्या के अनुसार गाथा का तात्पर्य यह है कि जिससे (कुशल और अकुशल प्रवृत्ति के सम्यग्ज्ञान से) इहलोक और परलोक दोनों में हित होता है, तथा जिससे सुगति की प्राप्ति--परम्परा से मोक्ष की प्राप्ति होती है, ऐसे सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति के लिए साधु को बहुश्रुत की पर्युपासना करनी चाहिए और उनकी पर्युपासना करते हुए प्रश्न पूछ-पूछ कर पदार्थों का यथार्थ निश्चय करना चाहिए / बहुश्रुत मुनि ही अध्यात्मविद्या के अधिकारी हैं, वे ही मुमुक्षु को अध्यात्मविद्या का यथार्थ ज्ञान अथवा तत्त्व का निश्चय करा कर उसे संयम में निश्चल कर देते हैं / 53 बहुश्रुत वही होता है, जिसने श्रुत (शास्त्रों) का बहुत अध्ययन किया हो, अथवा जिनदासचूणि के अनुसार प्राचार्य, उपाध्याय आदि को बहुश्रुत माना गया है / 54 51. जोग मणो-वयण-कायमय अणुप्पेहणसज्झायपडिलेहणादिसु पत्त यं समुच्चयेण वा च सद्दे ण नियमेण भंगितसुते तिविधमपि। -अगस्त्यणि, पृ. 195 52. (क) अत्थो सद्दो, इह फलवाची। -अगस्त्यचूणि, पृ. 195 (खभावार्थ-ज्ञानादिरूपम् / -हारि. व., प. 235 53. इहलोगे एगदिवसदिक्खितो वि विणएण बंदिज्जते य पूजिज्जते य अवि रायरायोहि, परलोए सुकूलसंभवादि / --अ. चू. 195-196 54. (क) 'बहुसुयगहणेणं पायरिय-उवज्झायादीयाण गहणं / ' –जि. चू., 287 (ख) 'प्रत्थ विणिच्छयो तब्भावनिण्णयो तं / ' -अ. चू., पृ. 196 / (ग) 'अर्थविनिश्चयं-अपायरक्षक कल्याणावह वाऽर्थावितथभावम् / ' —हारि. बु., प. 235 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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