________________ 318] [दशवकालिकसूत्र सप्पहासं विवज्जए : दो रूप : दो अर्थ (1) संग्रहास-समुदित रूप से होने वाला सशब्द हास्य, (2) सप्रहास-अट्टहास अथवा अत्यन्त हास्य / साधु को अत्यन्त हँसना भी नहीं चाहिए, क्योंकि इससे अविनय और असभ्यता प्रकट होती है, घोर कर्मबन्धन होता है, किसी समय हँसीमजाक से कलह उत्पन्न होने की सम्भावना है। हँसी-मजाक करने की आदत स्वयं को तथा दूसरे को दुःख उत्पन्न कराती है / 'मिहो कहाहि न रमे-परस्पर विकथाओं में लीन न हो / विकथाएँ चार हैं-स्त्रीविकथा, भक्तविकथा, राजविकथा और देश विकथा / रहस्यमयी कथाएँ, फिर वे स्त्री-सम्बन्धी हों या अन्य भक्तदेशादि-सम्बन्धी हों, मिथःकथा हैं / विकथा व्यर्थ की गप्पं हांकना, गपशप करना है। विकथानों में साधक का अमूल्य समय नष्ट होता है, विकथा के शौक में पड़ जाने से साधक अपने धर्म से भ्रष्ट हो जाता है, ज्ञानादि की उपलब्धि से वंचित हो जाता है। सज्झायम्मि रमो सया : व्याख्या--स्वाध्याय के दो अर्थ मुख्य हैं-(१) सुष्ठु अध्ययन अर्थात् विधिपूर्वक अच्छे ग्रन्थों का अध्ययन / (2) शास्त्रों एवं ग्रन्थों के वाचन से स्व (अपने जीवन का) अध्ययन / साधु को सदैव स्वाध्याय तप में रत रहना चाहिए; क्योंकि इससे ज्ञानावरणीयकर्म का क्षयोपशम तथा ज्ञान की प्राप्ति होती है, समय समाधिपूर्वक व्यतीत होता है, धर्मपालन में दृढ़ता पाती है। 'प्रमादत्याग का द्वितीय उपाय' श्रमणधर्म में संलग्नता--यदि स्वाध्याय में सदैव मन न लगे तो क्या करना चाहिए ? इसके लिए शास्त्रकार कहते हैं--- 'समणधम्मम्मि जुजे'-अर्थात्-पालस्य को त्याग कर अपने मन,वचन, काया के योग (व्यापार) को श्रमणधर्म में जोड़ दे / यहाँ 'ध्रुव' शब्द के प्रयोग करने का प्राशय यह है कि श्रमणधर्म में साधु को निश्चल, एकाग्र होकर अथवा निश्चित या नियमित रूप से उत्साहपूर्वक श्रमणधर्म के पालन में जुटना चाहिए।५० 47. (क) "समेच्च समुदियाणं पहसणं सतिरालावपुवं संपहासो।" -अग. चूणि, पृ. 195 (ख) सप्पहासो नाम अतीव पहासो,"परवादिउद्धसणादिकारणे जइ हसेज्जा तहावि सप्पहासं विवज्जए। -जिन. चूणि, पृ. 287 (ग) दशवे. (प्राचार्यश्री आत्मा.) पृ. 794 (घ) दशवै. (संतबालजी) पृ. 112 48. (क) मिहोकहानो रहसियकहाओ भण्णं ति, तामो इत्थिसम्बद्धायो वा होज्जा, अण्णायो वा भत्तदेस कहादियानो तासु। -जिन. चूर्णि, पृ. 287 (ख) मिथः कथासु-राहस्यिकोषु / -हारि. वृत्ति, पत्र 235 (ग) दशवै. (प्राचार्यश्री आत्मारामजी) पृ. 794 (क) स्वस्य अस्मिन् अध्ययनं-स्वाध्यायः / (ख) सुष्ठु-विधिपूर्वकमध्ययनम्-स्वाध्यायः / (ग) स्वाध्याये-वाचनादौ / हारि. वृत्ति, पत्र 235 50. ध्र वं कालाद्यौचित्येन नित्यं सम्पूर्ण सर्वत्र प्रधानोपसर्जनभावेन वा, अनुप्रक्षाकाले मनोयोगमध्ययनकाले वाग्योगं प्रत्युपेक्षणकाले काययोगमिति / "युक्त एवं व्यापृतः। -हारि. वृत्ति, पत्र 235 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org