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________________ 322] [दशवकालिकसूत्र [437] पाचारांग (प्राचार) और व्याख्याप्रज्ञप्ति (भगवती) सूत्र के धारक एवं दृष्टिवाद के अध्येता साधु (कदाचित्) वचन से स्खलित हो जाएँ तो मुनि उनका उपहास न करे / / 4 / / 438] (मात्मार्थी साधु) नक्षत्र, स्वप्न (फल), वशीकरणादि योग, निमित्त, मन्त्र (तन्त्र, यन्त्र), भेषज आदि अयोग्य बातें गृहस्थों को न कहे; क्योंकि ये प्राणियों के अधिकरण-(हिंसा प्रादि अनिष्टकर) स्थान हैं / / 50 // विवेचन-भाषा में द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव एवं पात्र का विवेक-प्रस्तुत पांच गाथाओं (434 से 438 तक) में द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव एवं पात्र की दृष्टि से साधु के लिए न बोलने योग्य भाषा का निषेध तथा बोलने योग्य भाषा का विधान किया गया है। भाषा के विषय में पात्र का विवेक यद्यपि साधक जो भाषा बोलता है, वह निरवद्य ही बोलता है, तथापि गाथा 434 में बोलने का जो निषेध किया गया है वह काल और मुख्यतया पात्र की दृष्टि से है / गुरुजन या कोई श्रावक आदि साधु से कुछ पूछे नहीं और कोई प्रयोजन भी न हो, उस समय निष्प्रयोजन बोलना निषिद्ध है, प्रयोजनवश बोलने का निषेध नहीं। साथ ही जब गुरुजन आदि किसी से बात कर रहे हों, उस समय बीच में ही उनकी बात काट कर बोलना उचित नहीं। उस समय पात्र और परिस्थिति दोनों देखे बिना ही तपाक से कह बैठना-यापने यह कहा था. अविवेक है। पृष्ठमांस-पैशुन्य या चुगली को कहते हैं / पैशुन्यसूचक शब्द भले ही निरवद्य हों, किन्तु निन्दा और चुगली से द्वेष, ईर्ष्या, असूया, घृणा आदि दुर्गुण बढ़ते हैं, पापकर्म का बन्ध होता है, वैर बढ़ता है और मायामृषा तो द्रव्य, क्षेत्र आदि सभी दृष्टियों से हानिकर होने से त्याज्य है ही। क्योंकि इसमें असत्य बोलने के साथ-साथ पूर्वयोजित माया का प्रयोग होता है। अपनी असत्यता को छिपाने के लिए अपने कपटयुक्त भावों का उस पर चिन्तनपूर्वक प्रावरण डाल कर ऐसे कहा जाता है, ताकि सुनने वाला उसकी बात पूर्ण सच मान ले।७ गाथा संख्या 435 में 'सव्वसो' कह कर सर्व द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और पात्र सभी दृष्टि से ऐसी स्वपर-अहितकारिणी भाषा का प्रयोग निषिद्ध बताया है, जो अप्रीतिकर हो, जिससे श्रोता का क्रोध भड़कता हो। गाथा संख्या 437 में शास्त्रज्ञ साधु के मुंह से निकलने वाले वचनों में व्याकरण की दृष्टि से कदाचित् कोई त्रुटि या स्खलना रह जाए तो उनका उपहास करना भी प्राज्ञ साधु के लिए उचित नहीं, क्योंकि छद्मस्थ मनुष्य भूल न करने की पूरी-पूरी सावधानी रखता हुया भी कभी भूल कर बैठता है। सर्वज्ञ बन जाने पर ही 'भूल' सर्वथा मिट सकती है। उपहास करना भी भाषा दोष है, 57. (क) अपुच्छिम्रो निक्कारणे ण भासेज्जा। भासमाणस्स अंतरा ण कुज्जा, जहा-जं एयं ते भणितं, एयं न। “जं परंमुहस्स अवबोलिज्जइ, तं तस्स पिद्विमंसभक्खणं भवइ। मायाए सह मोसं-मायामोसं / न मायामन्तरेण मोसं भासइ, कहं ? जं पुदिव भासं कुडिलीकरेइ पच्छा भासइ। अहवा जं माया सहियं मोसं / " --जिनदासचूणि, पृ. 288 (ख) "पृष्ठिमांसं-परोक्षदोषकीर्तनरूपम् / मायाप्रधानां मृपावाचम् / " --हारि. वृत्ति, पत्र 236 (ग) दशवै. (प्राचार्यश्री आत्मारामजी म.) पृ. 802 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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