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________________ 1) को अष्टम अध्ययन : आचार-प्रणिधि]] [307 बालजनों के लिए सुलभ हैं / कोई आदमी भिक्षु को गाली दे तो सोचे-पीटा तो नहीं, पोटे तो सोचे-- मारा तो नहीं, मारे तो सोचे-मुझे धर्मभ्रष्ट तो नहीं किया। इस प्रकार क्रोधभाव पर विजय पाए / 22 क्षुधा, तृषा आदि परीषहों को समभाव से सहने का उपदेश 415. खुहं पिवासं दुस्सेज्जं सीउण्हं प्ररई भयं। ___ अहियासे अव्वहिओ देहे दुवखं* महाफलं // 27 // [415] क्षुधा, पिपासा (प्यास), दुःशय्या (विषम भूमि पर शयन या अच्छा निवासस्थान न होना), शीत, उष्ण, अरति और भय को (मुनि) अव्यथित (क्षुब्ध न) होकर सहन करे; (क्योंकि) देह में (कर्मजनित उत्पन्न हुए) दुःख (कष्ट) को (समभाव से सहन करना) महाफलरूप होता है / / 27 / / विवेचन---देहदुःख : महाफलरूप : प्राशय-व्यथित हुए (झुंझलाए-क्षुब्ध हुए ) बिना समभाव से अथवा अदीनभाव से प्रसार शरीर से सम्बन्धित क्षुधादि परीषहों (कष्टों--दुःखों) सहने से मोक्षरूप महाफल की प्राप्ति होती है। कष्टों के समय मुनि को इस प्रकार धैर्य धारण करना चाहिए ----यह शरीर प्रसार है, इसका क्या मोह ? एक न एक दिन यह छूटेगा ही, इससे जो कुछ संवरनिर्जरारूप धर्म कमा लिया जाए, वही अच्छा है। दूसरी दृष्टि से देखें तो देह का दुःख एक प्रकार से इन्द्रियों का संयम है। इन्द्रियों का असंयम, बाह्य दृष्टि से देखते हुए सुखरूप प्रतीत होता है, परन्तु परिणाम में एकान्त दुःख का ही कारण है, जब कि संयम पहलेपहल इन्द्रियों के अध्यास के कारण दुःखरूप प्रतीत होता है, लेकिन परिणाम में एकान्त सुख का ही कारण है / 3 रात्रिभोजन का सर्वथा निषेध 416. अत्थंगयम्मि प्राइच्चे, पुरत्था य अणुग्गए। आहारमाइयं सव्वं मणसा वि न पत्थए // 28 // 22. (क) सनिधी-गुलघयतिल्लादीणं दव्वाणं परिवासणं ति। जिन. चू., पृ. 282 (ख) जगणिस्सितो इति एक्कं कुलं गाम वा पिस्सितो. जणपदमेव / (ग) अगस्त्यचूणि, पृ. 190-191 / / (घ) मुधाजीवी----मुधा अमुल्लेण तथा जीवति मुधाजीवी, जहा-पढमपिंडेसणाए। -अ. च., पृ. 190 मुधाजीवी नाम जं जातिकलादीहिं प्राजीवणविसेसे हि परं न जीवति। -जि. च , पृ. 190 (ङ) असंबद्ध णाम जहा पुक्ख रपत्तं तोएणं न संबज्झइ एवं गिहीहि समं असंबद्धण भवियव्यं ति। जगनि स्सिए णाम तत्थ पत्ताणि लभिस्सामो त्ति काऊण गिहत्थाण णिस्साए विहरेज्जा, न तेहि समं कटलाई करेज्जा। -जिन. चूर्णि, पृ. 282 (च) जगनिश्रित:-चराचर-संरक्षणप्रतिबद्धः / अप्पिच्छो---न्यूनोदरतयाऽऽहारपरित्यागी। सुभरः स्यादपेच्छ त्वादेव भिक्षादाविति फलं प्रत्येक वा स्यात् / -हारि. व. , पत्र 231 (छ) आसुरत्त-----असुराणं एस विसेसेणं ति आसुरो कोहो, तल्भावो आसुरत्त' / (ज) अगस्त्यचूणि, पृ. 191 23. दशव. पत्राकार (आचार्यश्री प्रात्मारामजी म.) पत्र 770 पाठान्तर-* देह-दुक्खं / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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