________________ 306] [वशवकालिकसूत्र 'जय भोयणम्मि गिद्धो.. " घरे०' : व्याख्या-भोजन शब्द से यहाँ चारों प्रकार के प्राहार का ग्रहण किया गया है / भोजन में प्रासक्त होकर निर्धन कुलों को छोड़ कर उच्च कुलों में प्रवेश न करे / अथवा भोजन के प्रति आसक्त होकर विशिष्टभोजनप्राप्ति के लिए दाता की प्रशंसा करता हा भिक्षाचर्या न करे / 20 _ 'उञ्छ' शब्द का अर्थ-भावार्थ----गृहस्थ के भोजन कर लेने के बाद शेष रहा भोजन लेना, या घर-घर से थोड़ा-थोड़ा पाहार लेना / यह स्वल्प भिक्षा का वाचक शब्द है।" 'सन्निहि' प्रादि शब्दों के अर्थ-सन्निधि-शाब्दिक अर्थ है-पास में रखना, जमा या संग्रह करना, भावार्थ है--रातबासी रखना / मुहाजीवी-मुधाजीवो-किसी प्रकार मूल्य (बदलने में) लिए बिना निःस्पृहभाव से जीने वाला, अपने जीवननिर्वाह के लिए धन आदि का प्रयोग न करने वाला, अथवा-सर्वथा अनिदान-जीवी, अर्थात-गृहस्थ का किसी भी प्रकार का सांसारिक कार्य न करके प्रतिबद्धतारहित भिक्षावृत्ति द्वारा संयमी जीवन यापन करने वाला। असंबद्ध : असम्बद्ध-गृहस्थों से अनुचित या सांसारिक प्रयोजनीय सम्बन्ध न रखने वाला या जल-कमलवत् गृहस्थों से निलिप्त अथवा जो सरस आहार में प्रासक्त-बद्ध न हो। जगनिस्सिए : जगनिश्रित : अर्थ और भावार्थ-शब्दश: अर्थ होता है-जगत् के आश्रित-अखिल मानवजगत् के अाश्रित रहे / किन्तु अगस्त्यसिंहचूणि के अनुसार भावार्थ है-मुनि एक कुल या ग्राम के निश्रित न रहे, किन्तु जनपद के निश्रित रहे, वर्तमान युग की भाषा में जनाधारित रहे। जिनदासचूणि के अनुसार इसका प्राशय है-मुनि गृहस्थ के यहाँ से जो निर्दोष व सहजभाव में प्राप्त हो, उसी पर प्राश्रित रहे / मन्त्र-तन्त्रादि दोषयुक्त उपायों के आश्रित न रहे / लहवित्ती: रूक्षवत्ति : दो अर्थ(१) रूक्ष-संयम के अनुकूल प्रवृत्ति करने वाला, (2) चना, कोद्रव आदि रूक्ष द्रव्यों से जीविका (जीवननिर्वाह) करने वाला। सुसंतुठे-सुसन्तुष्ट-रूख-सूखा, वह भी थोड़ा-सा जैसा भी, जितना भी मिल जाता है, उसी में पूर्ण सन्तुष्ट रहने वाला। सुहरे : सुभर-थोड़े-से आहार से पेट भर लेने वाला या निर्वाह कर लेने वाला या अल्पाहार से तृप्त होने वाला / अप्पिच्छे-अल्पेच्छ—जिसके पाहार की जितनी मात्रा हो, उससे कम खाने वाला अल्पेच्छ (अल्प इच्छा वाला)। रूक्षवृत्ति, सुसन्तुष्ट, अल्पेच्छ और सुभर में कार्य-कारण भाव है। ""आसुरत्तं-प्रासुरत्व-क्रोधभाव / असुर क्रोधप्रधान होते हैं, इसलिए प्रासुर शब्द क्रोध का वाचक हो गया। अक्रोध की शिक्षा के लिए आलम्बन के रूप में अगस्त्यचूणि में एक गाथा उद्धृत है, जिसका भावार्थ है-गाली देना, मारना, पीटना, ये कार्य 20. (क) जिन. चणि, पृ. 281 (ख) हारि. वृत्ति, पृ. 231 21. (क) उछः कणश पादानं कणशाद्यर्जनशीलमिति यादवकोशः / (ख) दशव. 10116, चू. 215 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org