________________ अष्टम अध्ययन : आचार-प्रणिधि] [305 आहार के गुणदोषों का तथा लाभालाभ का कथन-निषेध क्यों ? -ऐसा कहने से साधु के अधैर्य, असंयम प्रादि दोष प्रकट होते हैं, संयम का विघात होता हैं, श्रोताओं के मन में नाना शुभाशुभ विकल्प पैदा होते हैं; जिससे भविष्य में साधु के निमित्त से प्रारम्भ-समारम्भ आदि होने की सम्भावना है। रसनेन्द्रिय और कर्णेन्द्रिय के विषयों में समत्वसाधना का निर्देश 411. न य भोयणम्मि गिद्धो चरे उंछं अयंपिरो। अफासुयं न भुजेज्जा, कोयमुद्देसियाऽऽहडं // 23 // 412. सन्निहि च न कुन्वेज्जा अणुमायं पि संजए। मुहाजोवी असंबद्ध हवेज्ज जगनिस्सिए // 24 // 413. लहवित्ती सुसंतुठे अप्पिच्छे सुहरे सिया। प्रासुरत्तं न गच्छेज्जा, सोच्चाणं जिणसासणं // 25 // 414. कण्णसोक्खेहि सद्देहि पेमं नाभिनिवेसए। दारुणं कक्कसं फासं काएण अहियासए // 26 // [411] (साधु सरस) भोजन में गद्ध (पासक्त) होकर (विशिष्ट सम्पन्न घरों में) न जाए, (किन्तु) व्यर्थ न बोलता हुआ उच्छ (ज्ञात-अज्ञात उच्च-नीच-मध्यम सभी घरों से थोड़ी-थोड़ी समानभाव से भिक्षा) ले / (वह) अप्रासुक, क्रीत, औद्देशिक और पाहृत (सम्मुख लाये हुए प्रासुक) पाहार का भी उपभोग न करे // 23 // [412] संयमी (साधु या साध्वी) अणुमात्र भी सन्निधि न करे (संग्रह करके रात्रि में न रखे) / वह सदैव मुधाजीवी असम्बद्ध (अलिप्त) और जनपद (या मानवजगत्) के निश्रित रहे, (एक कुल या एक ग्राम के आश्रित न रहे) // 24 // [413] साधु रूक्षवृत्ति, सुसन्तुष्ट, अल्प इच्छा वाला और थोड़े से आहार से तृप्त होने वाला हो / वह जिनप्रवचन (क्रोधविपाकप्रतिपादक जिनवचन) को सुन कर आसुरत्व (क्रोधभाव) को प्राप्त न हो / / 25 // [414] कानों के लिए सुखकर शब्दों में रागभाव (प्रेम) स्थापन न करे, (तथा) दारुण और कर्कश स्पर्श को शरीर से (समभावपूर्वक) सहन करे / / 26 / / विवेचन-पंचेन्द्रियविषयों के प्रति मध्यस्थभाष रखे--प्रस्तुत 4 गाथाओं (411 से 414 तक) में रसनेन्द्रिय, श्रोत्रेन्द्रिय और स्पर्शेन्द्रिय के विषयों में राग-द्वेष न करके सम प्रतिपादन स्पष्ट है, शेष घ्राणेन्द्रिय और चक्षुरिन्द्रिय के विषयों में भी समत्वभाव उपलक्षण से फलित होता है।" 18. दश. (ग्रा. अात्मारामजी म.), पत्र 763 19. (क) दसवेयालियं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त), पृ. 57 (ख) दशवै. (प्राचार्यश्री आत्माराम जी म.), पृ. 767,769 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org