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________________ 304] [दशबैकालिकसूत्र देखी-सुनी सभी बातें प्रकट करने में दोष--साधु या साध्वी जब भिक्षा प्रादि के लिए गृहस्थ के घरों में जाते हैं तो वहाँ अनेक अच्छी-बुरी, नैतिक-अनैतिक, निन्द्य-अनिन्द्य बातें सुनतेदेखते हैं। किन्तु स्वपरहित की दृष्टि से वे सभी बातें लोगों के समक्ष कहने योग्य नहीं होती। यथा'याज अमुक घर में लड़ाई हो रही है / ' 'आज मैंने अमुक को दुराचार करते देखा / ' अथवा 'अमुक स्त्री बहुत रूपवती है या अत्यन्त कुरूपा है / ' ऐसी बातें प्रकट करने से अपना कोई हित नहीं होता, न दूसरों का कोई हित होता है। बल्कि जिस व्यक्ति के विषय में ऐसा कहा जाता है, वह साधु का विरोधी या द्वेषी बन सकता है, उसे हानि पहुंचा सकता है। चूणिकार ने इस गाथा के समर्थन में एक उदाहरण प्रस्तुत किया है-एक गृहस्थ परस्त्रीगमन कर रहा था। किसी साधु ने उसे ऐसा करते हुए देख लिया। वह लज्जित हो कर सोचने लगा-यदि साधु ने यह बात प्रकट कर दी तो समाज में मेरी बेइज्जती हो जाएगी, अत: इस साधु को मार डालना चाहिए। उसने शीघ्र दौड़कर साधु व का और पूछा--"आज अापने रास्ते में क्या-क्या देखा ?" साधु ने इसी गाथा से मिलता-जुलता प्राशय प्रकट किया--"भाई ! साधु बहुत-सी बातें देखता-सुनता है, किन्तु देखी-सुनी सभी बातें प्रकट करने की नहीं होती।" यह सुनते ही उसने साधु को मारने का विचार छोड़ दिया। अगली गाथा के पूर्वार्द्ध में यही बात कही है कि देखी या सुनी हुई औपघातिक बात भी नहीं कहनी चाहिए / यथा--'मैंने सुना है कि तू चोर है,' अथवा 'मैंने उसे लोगों का धन चुराते देखा है', यह क्रमशः सुना-देखा औपघातिक वचन है। हाँ, जिसके प्रकट करने से स्वपर का हित होता हो, उसे साधु प्रकट कर सकता है / 5 "गिहिजोगं न समायरे०" : व्याख्या-गिहिजोगं (गृहियोग) का अर्थ है---गृहस्थ का संसर्ग या सम्बन्ध अथवा गृहस्थ का व्यापार (कर्म)। गृहिसम्बन्ध, जैसे-इस लड़की का तूने वैवाहिक सम्बन्ध नहीं किया ? अथवा इसकी सगाई अमुक के लड़के से कर दे। इस लड़के को अमुक कार्य में लगा दे। अथवा गृहस्थ के बालकों को खिलाना उसके व्यापार-धंधे को स्वयं देखना अथवा उसके अन्य गृहस्थोचित कार्य स्वयं करने लगना गृहस्थव्यापार (कर्म) है / यह साधु के लिए अनाचरणीय है / गिहिणो वेयावडियं-गृहस्थ की सेवा करना अनाचीर्ण बताया गया है। 'निट्ठाणं' आदि पदों का अर्थ-निट्ठाणं-जो भोजन सर्वगुणों से युक्त हो, अथवा मिर्च-मसाले आदि से सुसंस्कृत हो अर्थात् जो सरस हो / रसनिज्जूढं : रसनिए ढं-जिसका रस चला गया हो, ऐसा निकृष्ट या नीरस भोजन / 15 (क) दशवे. (प्राचार्य श्री आत्मारामजी म.), पत्र 759, 760 (ख) जिनदासचूणि, पृ. 281, (ग) दशव. (ग्रा. प्रात्मा.) पत्र 759 16. (क) वही, (प्रा. प्रात्मा) 760 (ख) गिहिजोगं गिहिसंसरिंग, गिहवावारं वा / ~~-अ.चू.पृ. 190 (ग) ....."ग्रहवा गिहिकम्म जोगो भण्ण इ, तस्स गिहिकम्माणं कयाणं अकयाणं च तत्थ उवेक्खणं सयं वाऽकरणं, जहा-एस दारिया किं न दिज्जइ ?दारको वा किं न निदेसिज्जई ? एवमादि। --जि. च पृ. 281 (घ) गृहियोग-गृहिसंबंध-तद्बालग्रहणादिरूपं गहिव्यापारं वा / -हारि. वृ., पृ. 231 17 (क) णिद्वाणं नाम जं सव्वगुणोववेयं सव्वसंभारसंभियं तं णिहाण भष्णइ / ---जि. चू., पृ. 281 (ख) रसणिज्जूद णाम जं कइसमं ववगयरसं तं रसणिज्जूढं भण्णइ / -जि. चू. पृ. 281 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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