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________________ अष्टम अध्ययन : आचार-प्रणिधि] [303 ही संयत शब्दों में उत्तर दे। 'ण य रूवेसु मणं करे'--भिक्षा के समय पाहार देने वाली स्त्रियों, मकान तथा सौन्दर्य प्रसाधक वस्तुओं या अन्य वस्तुओं का रूप, प्राकृति आदि देख कर यह विचार न करे कि-'अहो ! कितना सुन्दर रूप है / ' रूप की तरह शब्द, रस, गन्ध और स्पर्श में भी मन न लगाए, यानी आसक्त-मोहित न हो। जिस प्रकार रूप का ग्रहण किया है, उसी प्रकार भोज्यपदार्थों के रस आदि के विषय में भी जान लेना चाहिए। तात्पर्य यह है कि साधु ग्लान, रुग्ण, वृद्ध आदि साधुओं की औषधि के लिए या भोजन-पानी लाने के लिए जाए तो वहाँ गवाक्ष आदि को न देखता हुआ, एकान्त एवं उचित स्थान पर खड़ा हो और अपने आने का प्रयोजन आदि पूछने पर थोड़े शब्दों में ही कहे / दृष्ट, श्रुत और अनुभूत के कथन में विवेक निर्देश 408. बहुं सुणेइ कणेहिं, बहुं अच्छोहिं पेच्छइ / न य दिळं सुयं सवं भिक्खू अक्खाउमरिहइ // 20 // 409. सुयं वा जइ वा दिळं न लवेज्जो व घाइयं / / न य केणइ उवाएणं गिहिजोगं समायरे // 21 // 410. निट्ठाणं रसनिज्जद भट्टगं पावगं ति वा। पुट्ठो वा वि अपुट्ठो वा लाभालाभं न निद्दिसे // 22 // [408] भिक्षु कानों से बहुत कुछ सुनता है तथा अाँखों से बहुत-से रूप (या दृश्य) देखता है किन्तु सब देखे हुए और सुने हुए को कह देना उचित नहीं // 20 // [409] यदि सुनी हुई या देखी हुई (घटना) औपघातिक (उपघात से उत्पन्न हुई या उपधात उत्पन्न करने वाली) हो तो (साधु को किसी के समक्ष) नहीं कहनी चाहिए तथा किसी भी उपाय से गृहस्थोचित (कर्म का) पाचरण नहीं करना चाहिए // 21 / / [410] (किसी के) पूछने पर अथवा बिना पूछे भो यह (सब गुणों से युक्त या सुसंस्कृत) सरस (भोजन) है और यह नीरस है, यह (ग्राम या मनुष्य प्रादि) अच्छा है और यह बुरा (पापी) है, अथवा (आज अमुक व्यक्ति से सरस या नीरस आहार) मिला या न मिला; यह भी न कहे / / 22 / / विवेचन साधुवर्ग के लिए भाषाविवेक एवं कर्मविवेक रखना अत्यावश्यक-प्रस्तुत तीन सूत्रगाथाओं (408 से 410 तक) में चार बातों के विवेक की प्रेरणा दी गई है—(१) देखी या सुनी सभी बातें कहने योग्य नहीं, (2) प्राघात पहुँचाने वाली देखी या सुनी बात न कहे, (3) गृहस्थोचित कर्म न करे, (4) आहार आदि सरस मिला हो या नीरस, किसी के पूछने या न पूछने पर भी न कहे।'४ 13. (क) जिन. चूर्णि, पृ. 280 (ख) यतं गवाक्षादीत्यनवलोकयन् तिष्ठेदुचितदेशे। 14. दसवेयालियसुत्त (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) पृ. -हारि. वृ., पृ. 231 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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