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________________ 302] [दशवकालिकसूत्र हानि न पहुँचे, इस प्रकार से एक ओर कर देना / इस क्रिया को प्रतिलेखन कहते हैं। शास्त्र में साधु के लिए प्रतिलेखन दो बार (प्रातः, सायं) करने का विधान है। परिष्ठापनसूत्र-शरीर के विकार मल, मूत्र, लींट, कफ, पसीना, मैल, मैला पानी, भुक्त. शेष अन्न या झूठा पानी आदि को जहाँ-तहाँ डाल देने से जीवों की उत्पत्ति एवं विराधना होनी सम्भव है, इसलिए परिष्ठापनविधि में चार बातों का विवेक रखना जरूरी है--(१) स्नेहसूक्ष्म आदि जीवों का विनाश न हो, (2) परिठाए हुए पदार्थों में जीवोत्पत्ति की सम्भावना न हो, (3) दर्शक लोगों के हृदय में घृणा पैदा न हो और (4) परठाए हुए पदार्थ रोगोत्पत्ति के कारण न हों। साधुओं के लिए स्थंडिलभूमि या उच्चारभूमि निर्जीव, शुद्ध हो, उसे प्रतिलेखन करके यतनापूर्वक मलमूत्रादि विसर्जन करने का भगवान् ने विधान किया है। यतनासूत्र-इसमें चलना-फिरना, खड़े रहना, बैठना, देखना, विचारना, सोना, खाना-पीना यादि सभी क्रियाएँ इस प्रकार से विवेकपूर्वक करना, जिससे किसी भी जीव की हिंसा न हो, आघात या हानि न पहुँचे / यही यतना है / '' इसका दूसरा नाम उपयोग, जागृति या सावधानी भी है। धुवं, जोगसा आदि शब्दों के अर्थ-धुवं : दो अर्थ-ध्रुव-निश्चल होकर, (2) अथवा नित्य नियमित रूप से / जोगसा : चार अर्थ-(१) मनोयोगपूर्वक, (2) उपयोगपूर्वक, (3) प्रमाणोपेत-- न हीन करे न अतिरिक्त और (4) सामर्थ्य होने पर / सिंघाणं : सिंघाण-नाक का मैल, लींट / खेल-श्लेष्म-कफ / जल्लियं : दो अर्थ---(१) पसीना, अथवा (2) शरीर पर जमा हुमा मैल / ' 'जयं चिटठे' प्रादि की व्याख्या-जयं चिठे शब्दशः अर्थ है-यतनापूर्वक खड़ा रहे / भावार्थ है--गहस्थ के घर में साधु झरोखा, जलगृह, सन्धि, शौचालय आदि स्थानों को बार-बार देखता हुआ या आँखों, हाथों को इधर-उधर घुमाता हुया खड़ा न रहे, किन्तु उचित स्थान में एकाग्रतापूर्वक खड़ा रहे / मियंभासे—गृहस्थ के पूछने पर मुनि यतना से एक या दो बार बोले, अथवा प्रयोजनवश बहुत 9. (क) दशवे. (प्राचार्यश्री प्रात्माराम जी म.), पत्राकार, पृ. 754 (ख) दशव. (संतबालजी) प्र. 106 (ग) उत्तरा. अ. 26 देखें। 10. (क) दशवै. (प्राचार्यश्री पात्मारामजी म.) पत्राकार, . 756 (ख) दशवं. (संतबालजी), पृ. 106 11. दशब. (संतबालजी) पृ. 35-36 12. (क) 'धुवं णियतं जोगसा जोगसामत्थे सति; ग्रहवा उवउज्जिऊण पुब्धि ति / जोगेण जोगसा ऊणातिरित्त पडिलेहणा वज्जितं वा।' -अगस्त्य च. 188 (ख) ध्रुवं णाम जो जस्स पच्चुवेक्षणकालो तं तम्मि णिच्च / जोगसा नाम सति सामत्थे, अहवा जोगसा णाम जं पमाणं भणितं, ततो पमाणाप्रो ण हीणमहियं वा पडिले हिज्जा / (ग) शक्तिपूर्वक (जोगसा) प्रतिलेखन-सम्यक्तया देखना / —दश. प्रा. प्रात्मा. पत्राकार, पृ. 754 (घ) वही, पत्राकार, पृ. 755 (ङ) जल्लियं नाम मलो.। - प्र. चू., पृ. 189 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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