________________ अष्टम अध्ययन : आचार-प्रणिधि] [299 तो भी उसके आश्रित जीवों की हिंसा होती है, इसलिए इसका निषेध है / शुद्ध पृथ्वी के दो अर्थ हैं-- (1) शस्त्र से अनुपहत (सचित्त) और (2) शस्त्र से उपहत (अचित्त) सचित्त / पर बैठने आदि से सोधी पृथ्वी-जीव-विराधना होती है और कंबलादि बिछाए विना प्रचित्त पथ्वी पर बैठने से शरीर की उष्मा से उसके निम्न भाग में रहे जीवों की विराधना होती है / शरीर भी धूल से लिप्त हो जाता है। अष्टविध सूक्ष्मजीवों की यतना का निर्देश 401. अटु सुहुमाई पेहाए जाई जाणित्तु संजए / दयाहिगारी भूएसु आस चिट्ठ सए हि वा // 13 // 402. कयराई अट्ठसुहुमाई? जाई पुच्छेज्ज संजए / इमाई ताई मेहावी आइक्खेज्ज वियक्खणे // 14 // 403. सिणेहं 1 पुप्फसुहमं 2 च पाणुत्तिगं 3-4 तहेव य / पणगं 5 बीयं 6 हरियं 7 च अंडसुहुमं 8 च अट्ठमं // 15 // 404. एवमेयाणि जाणित्ता सव्वभावेण संजए / अप्पमत्ते जए निच्चं संविदियसमाहिए // 16 // [401] संयमी (यतनावान् साधु) जिन्हें जान कर (ही वस्तुतः) समस्त जीवों के प्रति दया का अधिकारी बनता है, उन आठ प्रकार के सूक्ष्मों (सूक्ष्म शरीर वाले जीवों) को भलीभांति देखकर ही बैठे, खड़ा हो अथवा सोए / / 13 / / [402-403] जिन (सूक्ष्मों) के विषय में संयमी शिष्य पूछे कि वे पाठ सूक्ष्म कौन-कौन से हैं ? तब मेधावी और विचक्षण (प्राचार्य या गुरु) कहे कि वे ये हैं (ख) तत्थ पुछणं वत्थेहि तणादीहिं वा भवइ, संलिहणं जं पाणिणा संलिहिऊण णिच्छोडेइ, एवमादि / (ग) सरीरवतिरित्तं वा बाहिरं पोग्गलं' बाहिरपोग्गलम्गहणेणं उसिगोदगादोणं गहणं / --जि. च, पृ. 277 (घ) तणानि दर्भादीनि, वक्षा: कदम्बादयः / (ङ) गहनेषु वननिकुजेषु न तिष्ठेत् संघट्टनादिदोषप्रसंगात् / -हारि. वृत्ति, पत्र 229 (च) तत्थ उदगं नाम अणंतवणप्फई / “अहया उदगगहणेण उदगस्स गहणं करेंति, कम्हा ? जेण उदएण वाप्फइकानो अस्थि / -जिन. चूणि, पृ. 277 (छ) जलरहा प्रणेगविहा पण्णत्ता, तं.-उदए, अवए, पणए। ---प्रज्ञापना 1643, पृ. 105 (ज) उत्तिग:-सर्पच्छत्रादिः / -~-हारि. वृत्ति, पत्र 229 (झ) ण चिटू णिसीदणादि सव्वं ण चेएज्जा / सव्वभूताणि तसकायाधिकारोत्ति सव्वतसा / विविहमणगागार हीणमझाधिकभावेण / -. चू., पृ. 186 (ब) विविध जगत-कर्मपरतंत्र नरकादिगतिरूपम् / -ही. टी., पृ. 229 5. (क) असत्थोवहता सुद्धपुढवी, सत्थोवहता वि कंबलियातीहि अणंतरिया। -अ. चणि, प्र. 185 (ख) तत्थ सचित्तपूढवीए गाय उण्हाए विराधिज्जइ, अचित्ताए एमाए"हेठिल्ला वा तण्णिस्सिता सत्ता उण्हाए विराधिज्जति / -जि. च., पृ. 275 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org