SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 380
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 298] [दशवकालिकसूत्र पर्याप्त मात्रा में उबल जाने पर ही वह तप्तप्रासुक होता है, इसलिए उष्णोदक के साथ तप्त-प्रासुक विशेषण लगाया गया है / पूर्ण मात्रा में उबाला हुअा उष्णोदक ही मुनियों के लिए ग्राह्य है। इसके अतिरिक्त जिन कुण्डों में पानी स्वाभाविक रूप से गर्म होता है, जैसे राजगृह आदि अनेक स्थलों में ऐसे कुण्ड हैं जिनका पानी बहत गर्म होता है उसमें चावल आदि भी पक जाते हैं / पर वह गर्म प्रासुक नहीं होगा। उस पानी में उष्णयोनिक जीव होते हैं जिससे उन कुण्डों का उष्ण पानी श्रमण के लिए ग्राह्य नहीं होता, यह प्रकट करने के लिए यह विशेषण प्रयुक्त किया गया है / ___उदउल्लं-उदका-मुनि के शरीर को भीगने के तीन प्रसंग आते हैं—(१) जब वे नदी पार करते हैं, (2) बिहार करते समय वर्षा पा जाती है, अथवा (3) भिक्षाटन आदि के समय वर्षा आ जाती है। 'पुछे' एवं 'संलिहे' में अन्तरवस्त्र, तृण आदि से पोंछना प्रोंछन और हाथ, उंगली आदि से पोंछना संलेखन कहलाता है / बाहिरं पोग्गलं बाह्य पुद्गल- इसका अर्थ है-अपने शरीर से अतिरिक्त गर्म जल या गर्म दूध, खिचड़ी आदि / तणरुक्खं–'तृण' शब्द से यहाँ सभी प्रकार के घासों तथा रुवख शब्द से खजूर, ताड़, नारियल, सुपारी आदि सभी प्रकार के वृक्षों एवं गुच्छ, गुल्म प्रादि का ग्रहण किया गया है / गहणेसु--वृक्षों से आच्छन्न प्रदेशों में अर्थात–वननिकुजों में। इनमें हलन-चलन करने से वृक्ष की शाखा प्रादि का स्पर्श होने की संभावना रहती है, इसलिए यहाँ ठहरने का निषेध किया गया है / उदगम्मि : उदक पर---उदक शब्द के दो अर्थ होते हैं- जल और उदक नामक वनस्पति / प्रज्ञापना में अनन्तकायिक वनस्पति के प्रकरण में 'उदक' नामक वनस्पति का निरूपण है। जल में होने वाली वनस्पति के कारण इसका नाम 'उदक' है। यह अनन्तकायिक वनस्पति है / उत्तिग–यहाँ उत्तिंग का अर्थ सर्पच्छत्र या कुकुरमुसा है, जो बरसात के दिनों में होता है / ण चिट्ठ ---इसका खड़ा न रहे अर्थ होता है / किन्तु यह शब्द न बैठे, न सोए आदि क्रियाओं का संग्राहक है / 'विविहं-विविध-अर्थात् हीन, मध्यम और उत्कृष्ट, अथवा कर्मपरतन्त्रता के कारण नरकादि गतियों में उत्पन्न-विभिन्न प्रकार के जीव / पृथ्वी के भेदन-विलेखन तथा शुद्ध पृथ्वी पर बैठने आदि का निषेध क्यों ? - पृथ्वी के भेदन और विलेखन आदि करने से पृथ्वी सचित्त हो तो उसकी और तदाश्रित जीवों की तथा अचित्त हो 3. (क) सबीयगहणेण मूलकंदादि-बीजपज्जवसाणस्स पुव्वणितस्स दसप्पगारस्स वणप्फतिणो गहणं / --जि. च., पृ. 274 (ख) छणणं छण: क्षणु हिंसायामिति एयस्स रूवं / ण छणः अछणः, अहिंसणमित्यर्थः / जोगो सम्बंधो। मच्छणेण महिंसणेण जोगो जस्स सो प्रच्छणजोगो तेण। - अ. चू., पृ. 185 (ग) प्रक्षणयोगेन--अहिंसाव्यापारेण / ___ -हा. टी., प. 228 (घ) भित्तिमादि णदितडीतो जवोवद्दलिया सा भित्ती भन्नति / सुद्धपुढवी नाम न सत्थोवहता, असत्धोवयावि जाणो वत्वंतरिया सा सुद्धपुढवी भण्णइ / सीतोदगगहणेण उदयस्स गहणं कयं / -जि. चूणि, पृ. 276 (ङ) बुद्ध तक्कालवरिसोदगं / / - अ. चू. पृ. 185 / (च) 'तं पुणा उण्होदगं जाहे तत्तफासुयं भवति, ताहे संजतो पडिग्गाहिज्जत्ति / --जि. च., पृ. 276 4. (क) नदीमुत्तीणों भिक्षाप्रविष्टो वा वृष्टिहतः / उदका मुदकबिन्दुचितमात्मनः काय शरीरं स्निग्धं वा / –हा. टी., प. 228 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy