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________________ अष्टम अध्ययन : आचार-प्रणिधि] [297 [365] मुनि सचित्त जल से भीगे हुए अपने शरीर को न तो पोंछे और न ही (हाथों से) मले / तथाभूत (सचित्त जल से भीगे) शरीर को देखकर, उसका (जरा भी) स्पर्श (संघट्टा) न करे / / 7 / / [366] मुनि जलते हुए अंगारे, अग्नि, त्रुटित अग्नि की ज्वाला (चिनगारी), ज्योति-सहित अलात (जलती हुई लकड़ी) को न प्रदीप्त करे (सुलगाए); न हिलाए (न परस्पर घर्षण करे या स्पर्श करे) और न उसे बुझाए / / 8 / / [397] (साधु या साध्वी) ताड़ के पंखे से, पत्ते से, वृक्ष की शाखा से, अथवा सामान्य पंखे (व्यजन) से अपने शरीर को अथवा बाह्य (गर्म दूध आदि) पुद्गल (पदार्थ) को भी हवा न करे / / 6 / / 368] (अहिंसामहाव्रती मुनि) तृण (हरी घास आदि), वृक्ष, (किसी भी वृक्ष के) फल, तथा (किसी भी वनस्पति के) मूल का छेदन न करे, (यही नहीं) विविध प्रकार के सचित्त बीजों (तथा कच्ची प्रशस्त्रपरिणत वनस्पतियों के सेवन) की मन से भी इच्छा न करे // 10 // [366] (मुनि) वनकुजों में, बीजों पर, हरित (दूब आदि हरी वनस्पति) पर तथा उदक, उत्तिंग और पनक (काई) पर खड़ा न रहे / / 11 / / [400] (मुनि) वचन अथवा कर्म (कार्य) से त्रस प्राणियों की हिंसा न करे / समस्त जीवों की हिंसा से उपरत (साधु या साध्वी) विविध स्वरूप वाले जगत् (प्राणिजगत्) को (विवेकपूर्वक) देखे / / 12 // विवेचन-अहिंसा के आधार को जीवन में चरितार्थ करने के उपाय-प्रस्तुत 11 सूत्रगाथाओं (390 से 400) में जीवों के विविध प्रकार और उनकी विविध प्रकार से मन-वचन-काया से तथा कृत-कारित-अनुमोदन से होने वाली हिंसा से बचने और अहिंसा को साधुजीवन की प्रत्येक प्रवृत्ति में क्रियान्वित करने का निर्देश किया है। __ 'सबीयगा' प्रादि शब्दों के विशेषार्थ—सबीयगा-बीजपर्यन्त-जिनदासचूणि के अनुसार-- 'सबीज' शब्द के द्वारा वनस्पति के बीजपर्यन्त दस भेदों का ग्रहण किया गया है-मूल, कन्द, स्कन्ध, त्वचा (छाल), शाखा, प्रवाल, पत्र, पुष्प, फल और बीज / अच्छणजोएण-क्षण' का अर्थ-हिंसा है। अक्षण, अर्थात् -अहिंसा / 'योग' का अर्थ सम्बन्ध या व्यापार है / इसका भावार्थ है-अहिंसामय वृत्ति (व्यापार) पूर्वक / भित्ति : दो अर्थ-भीत और पर्वतादि की दरार / अथवा नदीतट / अर्थात् नदी के किनारे जो मिट्टी की ऊँची दीवार बन जाती है, वह भित्ति है। सीओदगं-शीतोदक-भूमि के आश्रित सचित्त जल / वुटुं-वृष्ट-वृष्टि का जल, अन्तरिक्ष का जल / उसिणोदकं तत्तफासुयंउष्णोदक–तप्तप्रासुक-उष्ण जल तो तप्त भी होता है और प्रासुक भी, फिर उष्णोदक के साथ तप्त प्रासुक विशेषण लगाने का प्रयोजन यह है कि सारा उष्णोदक तप्त व प्रासुक नहीं होता, किन्तु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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