________________ 300] [दशवकालिकसूत्र (1) स्नेहसूक्ष्म, (2) पुष्पसूक्ष्म, (3) प्राणिसूक्ष्म, (4) उत्तिंग (कीड़ीनगर) सूक्ष्म, (5) पनकसूक्ष्म, (6) बीजसूक्ष्म, (7) हरितसूक्ष्म और आठवाँ (8) अण्डसूक्ष्म / / 14-15 / / [404] सभी इन्द्रियों के विषय में राग-द्वेष रहित संयमी साधु इसी प्रकार इन (पाठ प्रकार के सूक्ष्म जीवों) को सर्व प्रकार से जान कर सदा अप्रमत्त रहता हुअा (इनकी) यतना करे / / 16 // विवेचन-आठ प्रकार के सूक्ष्म जीव, उनके उत्पत्ति-स्थान और यतनानिर्देश प्रस्तुत 4 सूत्र गाथाओं (401 से 404) में अष्टविध सूक्ष्मों का स्वरूप ज्ञ-परिज्ञा से जान कर प्रत्याख्यानपरिज्ञा से उनकी हिंसा का परित्याग करने तथा उनकी यतना करने का निर्देश किया गया है / अष्टविध सूक्ष्मों की व्याख्या- (1) स्नेहसूक्ष्म-अवश्याय (प्रोस), हिम (बर्फ), कुहासा (धुध), प्रोले और उद्भिद् जलकण, इत्यादि सूक्ष्म जल को स्नेहसूक्ष्म कहते हैं। (2) पुष्पसूक्ष्म--- बड़ और उम्बर (गूलर) प्रादि के फूल या उन जैसे वर्ण वाले फूल, जो अत्यन्त सूक्ष्म होने से सहसा सम्यक्तया दृष्टिगोचर नहीं होते। (3) प्राण (प्राणी) सूक्ष्म अणुद्ध री कुथुवा आदि सूक्ष्म प्राणी, जो चलने पर ही दिखाई देते हैं, स्थिरावस्था में सूक्ष्म होने से जाने नहीं जा सकते / (4) उत्तिगसूक्ष्म-अर्थात् कीडीनगर, जिसमें सूक्ष्म चींटियां तथा अन्य सूक्ष्म जीव रहते हैं / (5) पनकसूक्ष्म–काई या लीलन-फूलन, यह प्रायः वर्षाऋतु में भूमि, काष्ठ और उपकरण आदि पर उस द्रव्य के समान वर्ण वाली पांच रंग की लीलन-फूलन हो जाया करती है। इसमें भी जीव सुक्ष्म होने से दिखाई नहीं देते / (6) बीजसूक्ष्म-सरसों, शालि प्रादि बीजों के अग्रभाग (मुखमूल) पर होने वाली कणिका, जिससे अंकुर उत्पन्न होता है, जिसे लोक में 'तुषमुख' भी कहते हैं। (7) हरितसूक्ष्म-तत्काल उत्पन्न होने वाला हरितकाय जो पृथ्वी के समान वर्ण वाला तथा दुविज्ञेय (जिसका झटपट पता नहीं लगता, ऐसा) / (8) अण्डसूक्ष्म-मधुमक्खी, चींटी, मकड़ी, छिपकली, गिलहरी और गिरगिट आदि के सूक्ष्म अंडे जो स्पष्टतः ज्ञात नहीं होते। ये उपयुक्त आठ प्रकार के सक्षम हैं, जिनका ज्ञपरिज्ञा से ज्ञान होने पर ही प्रत्याख्यानपरिज्ञा से इनकी हिंसा का परित्याग करने एवं यतना करने का प्रयत्न किया जाता है। स्थानांग में उत्तिगसूक्ष्म के बदले लयन सूक्ष्म है, जिसका अर्थ है-जीवों का आश्रयस्थान / दोनों का अर्थ एक है, केवल शब्द में अन्तर है। सर्वजीवों के प्रति दयाधिकारी कौन और किन गुणों से ? शिष्य के द्वारा किये गए प्रश्न में यह भाव गभित है कि जिनके जाने बिना साधक सर्वजीवों के प्रति दया का अधिकारी बन ही नहीं 6. (क) सिणेहसुहम पंचपगारं, तं-पोसा हिमए महिया करए हरितणुए। पुप्फसहमं नाम बड-उंबरादीनि संति पूप्फाणि, तेसिं सरिसवन्नाणि दुग्विभावणिज्जाणि ताणि सुहमाणि / पाणसुहम प्रद्धरी कुथ जा चलमाणा विभाविज्जइ, थिरा दुबिभावा / उत्तिगसुहम-कीडिया धरगं, जे वा तन्थ पाणिणो दुन्विभावणिज्जा / पणगसुहम नाम पंचवन्नों पणगो वासासु भूमिकंट्ट-उवगरणादिसु तद्दव्व समवन्नो पणगसुहमं / बीयसुहम नाम सरिसवादि सालिस्स वा मुहभूले जा कणिया सा बीयसुहमं / साय लोगेण उ सुमहत्ति भण्णई / हरितसुहम णाम जो अहुणुट्ठियं पुढविसमाणवण्णं दुविभावणिज्चं तं हरियसुहुमं / -जि. चणि., 278 (ख) "उद्दसंडं महमच्छिगादीण / कीडिया-अंडगं-पिपीलिया अंडं, उक्कलि अंडलयापडागस्से, हलियंड बंभणिया-अंडगं सरडिअंडगं-हल्लोहल्लि अंडं / ' -अग. च., पृ. 188 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org