________________ श्रमण मन, वचन और काय तथा कृत-कारित-अनुमोदन की नव कोटियों सहित असत्य का परित्याग करता है। जिनदासगणी महत्तर के अभिमतानुसार श्रमण को मन, वचन, काया से सत्य पर आरूढ़ होना चाहिए / यदि मन, वचन और काय में एकरूपता नहीं है तो वह मृषावाद है।'00 जिन शब्दों से दूसरे प्राणियों के अन्तर्हदय में व्यथा उत्पन्न होती हो, ऐसे हिसकारी और कठोर शब्द भी श्रमण के लिए वर्ण्य हैं और यहाँ तक कि जिस भाषा में हिंसा की सम्भावना हो, ऐसी भाषा का प्रयोग भी बजित है। काम, क्रोध, लोभ, भय एवं हास्य के वशीभूत होकर-पापकारी, निश्चयकारी, दूसरों के मन को कष्ट देने वाली भाषा, भले ही वह मनोविनोद के लिए ही कही गई हो, श्रमण को नहीं बोलनी चाहिए। इस प्रकार असत्य और अप्रियकारी भाषा का निषेध किया गया है। अहिंसा के बाद सत्य का उल्लेख है। वह इस बात का द्योतक है कि सत्य अहिंसा पर आधत है। निश्चयकारी भाषा का निषेध इसलिए किया गया है कि वह अहिंसा और अनेकान्त के परीक्षणप्रस्तर पर खरी नहीं उतरती। सत्य का महत्त्व इतना अधिक है कि उसे भगवान की उपमा से अलंकृत किया गया है, और उसे सम्पूर्ण लोक का सारतत्त्व कहा है।'' __ अस्तेय श्रमण का तृतीय महावत है। श्रमण बिना स्वामी की प्राज्ञा के एक तिनका भी ग्रहण नहीं करता / ' 02 जीवनयापन के लिए आवश्यक वस्तुओं को तब ही ग्रहण करता है जब उसके स्वामी के द्वारा वस्त प्रदान की जाए। अदत्त वस्तु को ग्रहण न करना श्रमण का महाव्रत है। वह मन, वचन, काय और कृतकारित-अनुमोदन की नवकोटियों सहित अस्तेय महाव्रत का पालन करता है। चौर्य कर्म एक प्रकार से हिसा ही है / अदत्तादान अनेक दुर्गुणों का जनक है। वह अपयश का कारण और अनार्य कर्म है, इसलिए श्रमण इस महावत का सम्यक प्रकार से पालन करता है। चतथं महावत ब्रह्मचर्य है। ब्रह्मचर्य के पालन से मानव का अन्तःकरण प्रशस्त, गम्भीर और सुस्थिर होता है। ब्रह्मचर्य के नष्ट होने पर अन्य सभी नियमों और उपनियमों का भी नाश हो जाता है। 103 अब्रह्मचर्य आसक्ति और मोह का कारण है, जिससे आत्मा का पतन होता है / वह आत्म-विकास में बाधक है, इसीलिए श्रमण को सभी प्रकार के प्रब्रह्म से मुक्त होने का संदेश दिया गया है। ब्रह्मचर्य की साधना के लिए प्रान्तरिक और बाह्य दोनों प्रकार की सावधानी बहुत आवश्यक है। जरा सी असावधानी से साधक साधना से च्यूत हो सकता है। ब्रह्मचर्य पालन का जहाँ अत्यधिक महत्त्व बताया गया है वहाँ उसकी सुरक्षा के लिए कठोर नियमों का भी विधान है / ब्रह्मचर्य उत्तम तप, नियम, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, सम्यक्त्व तथा विनय का मूल है। अपरिग्रह पांचवां महावत है। श्रमण बाह्य और आभ्यन्तर दोनों ही प्रकार के परिग्रह से मुक्त होता है / परिग्रह चाहे अल्प हो या अधिक हो, सचित्त हो या अचित्त हो, वह सभी का त्याग करता है / वह मन, वचन और काया से न परिग्रह रखता है और रखवाता है और न रखने वाले का अनुमोदन करता है। परिग्रह की वत्ति आन्तरिक लोभ की प्रतीक है। इसीलिए मुर्छा या प्रासक्ति को परिग्रह कहा है। श्रमण को जीवन की आवश्यकताओं की दृष्टि से कुछ धर्मोपकरण रखने पड़ते हैं, जैसे वस्त्र, पात्र, कम्वल रजोहरण आदि / 104 श्रमण 100. निशीथचूणि 3988 101. प्रश्नव्याकरण सूत्र 22 102. दशवकालिक 6 / 14 103. प्रश्नव्याकरण 9 104. आचारांग 112 / 5 / 90 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org