________________ पादत्राणधारण-जूते पहनना / छत्रधारण---छत्ता धारण करना / दण्डधारण-दण्ड (छड़ी) धारण करना। ये सारे नियम यहाँ अधिकांशतः अनाचार में आये हैं अथवा अन्य ग्रागम-साहित्य में श्रमगों के लिए निषिद्ध कहे है।६८ इसका यही कारण है कि श्रमणों के लिए शरीर-रक्षा की अपेक्षा संयम-रक्षा प्रधान है। संयम-रक्षा के लिए इन्द्रिय-समाधि अावश्यक है। स्नान आदि कामाग्नि-सन्दीपक हैं, अत: भगवान महावीर ने उन सभी को अनाचार की कोटि में परिगणित किया है। अनाचारों का उल्लेख अहिंसा, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य की सुरक्षा के लिए हुआ है। नियुक्तिकार की दृष्टि से दशवकालिक का तृतीय अध्ययन नौवें पूर्व की तृतीय प्राचारवस्तु से उद्धृत है। महाव्रत : विश्लेषण चतुर्थ अध्ययन में पटजीवनिकाय का निरूपण है। प्राचारनिरूपण के पश्चात् पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायू, वनस्पति और बस आदि जीवों का विस्तार से निरूपण है। जैनधर्म में अहिंसा का बहुत ही सूक्ष्म विश्लेषण है। विश्व के अन्य विचारकों ने पृथ्वी, पानी, अग्नि आदि में जहाँ जीव नहीं माने हैं, वहाँ जैन परम्परा में उनमें जीव मानकर उनके विविध भेद-प्रभेदों का भी विस्तार से कथन है। श्रमण साधक विश्व में जितने भी त्रस और स्थावर जीव हैं उनकी हिंसा से विरत होता है। श्रमण न स्वयं हिंसा करता है, न हिंसा करवाता है और न हिंसा करने वाले का अनुमोदन ही करता है। श्रमण हिंसा क्यों नहीं करता? इस प्रश्न के उत्तर में कहा गया है हिंसा से और दुमरों को नष्ट करने के संकल्प से उस प्राणी को तो पीड़ा पहचती ही है साथ ही स्वयं के प्रात्मगुणों का भी हनन होता है। प्रात्मा कर्मों से मलिन बनता है। यही कारण है कि प्रश्नव्याकरण में हिंसा का एक नाम गुणविराधिका मिलता है / श्रमण अहिसा महाव्रत का पालन करता है। इसकी संक्षिप्त जानकारी प्रस्तुत अध्ययन में है। संघमी श्रमण तीन करण और तीन योग से सचित्त पृथ्वी आदि को न स्वयं नष्ट करे और न सचित्त पृथ्वी पर बैठे और न सचित्त धूल से सने हुए आसन का उपयोग करे / वह अचित्त भूमि पर ग्रामन आदि को प्रमाजित कर बैठे। संयमी श्रमण सचित्त जल का भी उपयोग न करे, किन्तु उष्ण जल या अचित्त जल का उपयोग करे। किसी भी प्रकार की अग्नि को साधु स्पर्श न करे और न अग्नि को सुलगावे और न बुझावे। इसी प्रकार श्रमण हवा भी न करे, दूध आदि को फूक से ठंडा न करे। श्रमण तृण, वृक्ष, फल, फल, पत्त आदि को न तोड़े, न काटे और न उस पर बैठे / श्रमण स्थावर जीवों की तरह त्रस प्राणियों की भी हिंसा मन, वचन और काया से न करे। वह जो भी कार्य करे वह विवेकपूर्वक करे।। इतना सावधान रहे कि किसी भी प्रकार की हिंसा न हो। सभी प्रकार के जीवों के प्रति संयम रखना अहिंसा है। श्रमग स्व और पर दोनों ही प्रकार को हिंसा से मुक्त होता है। काम, क्रोध, मोह प्रभति दुषित मनोवत्तियों के द्वारा आत्मा के स्वगुणों का घात करना स्वहिंसा है और अन्य प्राणियों को कष्ट पहुँचाना पर-हिंसा है। श्रमण स्त्र और पर दोनों ही प्रकार की हिंसा से विरत होता है। 98. सूत्रकृतांग 119 / 12, 13 से 18, 20, 21, 23, 29 99. अवसेसा निज्जूढा नवमस्स उ तइयवत्थूप्रो। -नियुक्ति गाथा 17 [35] . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org