SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 371
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सप्तम अध्ययन : बाक्यशुद्धि] [289 जाएगी / इस प्रकार की और भी बहुत हानियां हैं / अतः प्रकृति की उक्त क्रियाओं के विषय में साधु को भविष्य कथन या सम्मतिप्रदान कदापि नहीं करना चाहिए / 38 खेमं धायं सिवं ति वा : विभिन्न अर्थ क्षेम का अर्थ-शत्रुसेना (परचक्र) श्रादि का उपद्रव न होने की स्थिति है, अथवा टीकाकार के मतानुसार-क्षेम का अर्थ राजरोग का अभाव होना है। 'धायं' का अर्थ है सुभिक्ष और सिवं (शिव) का अर्थ है रोग-महामारी का अभाव, उपद्रव का अभाव :36 'तहेव मेहं क०' गाथा का फलितार्थ-निर्ग्रन्थ साधु के समक्ष जब यह प्रश्न उपस्थित हो कि प्रश्नोपनिषद् आदि वैदिक धर्मग्रन्थों में आकाश, वायु, मानव, अग्नि, जल आदि को देव कहा गया है, ऐसी स्थिति में आप क्या कहते हैं ?, इसके समाधान में यह गाथा है। इसमें कहा गया है कि निर्ग्रन्थ साधु-साध्वी सत्यमहाव्रती हैं, जिसका जैसा स्वरूप है, वैसा ही कथन करना उनके लिए अभीष्ट है। अतः मेघ, आकाश और (ब्राह्मण या क्षत्रिय) मानव आदि को देव कहना अत्युक्तिपूर्ण है / ये देव नहीं हैं, इन्हें देव कहने से मिथ्यात्व की स्थापना और मानव में लघुता (हीनता) आदि की भावना आती है, साथ ही मृषावाद का दोष लगता है। जनता में मिथ्या धारणा न फैले, इसलिए यह निषेध किया है। वस्तुतः यह कथन इन सबको देव कहने का प्रतिषेधक है; उपमालंकारादि की अपेक्षा से नहीं। प्रश्न उपस्थित होता है कि मेघ, आकाश एवं ऋद्धिशाली मनुष्य आदि को क्या कहा जाए ? इसके समाधानार्थ इस गाथा का उत्तरार्द्ध तथा अगली गाथा प्रस्तुत है। इसका फलितार्थ यह है कि जब प्राकाश में बादल उमड़-घुमड़कर चढ़ पाएँ, तब आकाशदेव में मेघदेव चढ़ पाए हैं, ऐसा न कह कर आकाश में मेघ चढ़ा हुआ पा रहा है / बरसने लगे तो कहना चाहिए कि मेघ बरस रहा है / मेघ (बादल) को जैनशास्त्रों में पुद्गलों का समूह माना गया है। नभ और मेघ को-अन्तरिक्ष को गुह्यानुचरित अर्थात्-देवसेवित (अथवा देवों के चलने का मार्ग) कहे / ऋद्धिमान् वैभवशाली एवं चमत्कारी मनुष्य को प्राचीन काल में देव या भगवान् कहने का रिवाज था, परन्तु यहां बताया गया है कि ऋद्धिमान् को देव या भगवान् न कह कर 'ऋद्धिमान्' कहे। तात्पर्य यह है कि जो वस्तु जिस प्रकार 38, (क) एताणि सरीरसहहे पयाज वा प्रासंसमायो..."णो वदे। -अ.., पृ. 177 (ख) दशव. पत्राकार (प्राचार्यश्री प्रात्मारामजी म.), पृ. 717 39. (क) दशवे. (प्राचार्यश्री प्रात्माराम जी) पृ. 717 (ख) क्षेम-राजविज्वरशून्यम् / (ग) धातं सुभिक्षम् / शिवं इति चोपसर्गरहितम् / / -हारि. वृत्ति, पृ. 223 40. (क) प्रश्नोपनिषद्, प्रश्न 2 / 2 (ख) मनुस्मृति अ. 7 / 8; 'महाभा. शान्ति' 68140 (ग) “मिथ्यावाद-लाघवादि-प्रसंगात् / ' -हा. व. प. 223 / (घ) तत्थ मिच्छत्तथिरीकरणादि दोसा भवंति। -जि. चूर्णि, पृ. 262 (ङ) दशवै. पत्राकार (प्राचार्यश्री प्रात्मारामजी), पत्र 718-719 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy