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________________ 288] [दशवकालिकसूत्र 384. 'अंतलिक्खे' ति णं बूया, 'गुज्माणुचरियं' ति य / रिद्धिमंतं नरं दिस्स 'रिद्धिमंत' ति आलवे // 53 // [381] देवों का, मनुष्यों का अथवा तिर्यञ्चों (पशु-पक्षियों) का परस्पर संग्राम (विग्रह या कलह) होने पर अमुक (पक्षवालों) की विजय हो, अथवा (अमुक पक्ष बालों की) विजय न हो,इस प्रकार न कहे // 50 // [382] वायु, वृष्टि, सर्दी, गर्मी, क्षेम (रौगादि उपद्रव से शान्ति), सुभिक्ष अथवा शिव (कल्याण), ये कब होंगे? अथवा ये न हों (तो अच्छा रहे; ) इस प्रकार न कहे // 51 / / [383] इसी प्रकार (साधु या साध्वी) मेघ को, आकाश को अथवा मानव को-'यह देव है, यह देव है,' इस प्रकार की भाषा न बोले / (किन्तु मेघ को देख कर)-'यह मेघ चढ़ा हुआ' (उमड़ रहा है), अथवा उन्नत हो रहा है (झुक रहा है) यह मेघमाला (बलाहक) बरस पड़ी है, इस प्रकार बोले / / 52 / / [384] (भाषाविवेकनिपुण साधु या साध्वी) नभ (और मेघ) अन्तरिक्ष तथा गुह्यानुचरित (गुह्यक देवों द्वारा सेवित अथवा देवों के आवागमन का गुप्त मार्ग) है, इस प्रकार कहे तथा ऋद्धिमान् मनुष्य को देख कर--'यह ऋद्धिशाली है, ऐसा कहे / / 53 / / विवेचन--जय-पराजय-विषयक कथन में दोष-पारस्परिक युद्ध या द्वन्द्व, चाहे देवों का हो, मनुष्यों का हो अथवा तिर्यञ्चों का, साधु को यह कदापि नहीं कहना चाहिए कि अमुक पक्ष या व्यक्ति की विजय हो, अमुक की हार हो, क्योंकि इस प्रकार कहने से युद्ध के अनुमोदन का दोष लगता है। दूसरे पक्ष को द्वेष उत्पन्न होता है, आघात पहुँचता है, अधिकरणादि दोषों की सम्भावना रहती है / अतः ऐसी भाषा कर्मबन्ध का कारण होती है / वायु, वर्षा प्रादि के होने, न होने के विषय में बोलने का निषेध-जिसमें अपनी और दूसरों की शारीरिक सुख-सुविधा अथवा धूप आदि से पीड़ित साधु को अपनी पीड़ानिवृत्ति के लिए अनुकल स्थिति के होने (हवा, वृष्टि, सर्दी-गर्मी, उपद्रवशमन, सुभिक्ष तथा दैविक उपसर्ग की शक्ति आदि) तथा प्रतिकूल परिस्थिति के न होने को आशंका हो, ऐसा वचन साधु या साध्वो न कहे / क्योंकि जो बातें प्राकृतिक हैं, उनके होने, न होने के विषय में साधु को कुछ कहना ठीक नहीं / साधु द्वारा इस प्रकार के कथन करने से अधिकरण दोष का प्रसंग तो है ही, दूसरे, साधु के कथन के अनुसार वायु, वष्टि प्रादि के होने से वायुकाय जलकायादि के जीवों को विराधना का अनुमोदन तथा कई लोगों को वायु-वष्टि आदि से पीडा या हानि भी हो सकती है। साधु के कहे अनुसार यदि पूर्वोक्त कार्य न हों तो उसे स्वयं को प्रार्तध्यान होगा, तया श्रोता की धर्म एवं धर्मगुरु (मुनि) पर से श्रद्धा कम हो 37. (क) दशवं. (प्राचार्यश्री प्रात्मारामजी म.), पत्राकार, पत्र 714 (ख) जिन. चूणि, पृ. 262 (ग) हारि. वृत्ति, पत्र 222 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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