________________ सप्तम अध्ययन : वाक्यशुद्धि] [ 27 असाधु और साधु कहने का विवेक 379. बहवे इमे असाहू लोए वुच्चंति साहुणो। __ न लवे असाहुं साहुं ति, साहुं साहुं ति पालवे / / 48 // 380. णाण-दसणसंपन्नं, संजमे य तवे रयं / एवं गुणसमाउत्तं संजयं साहुमालवे // 49 // [379] ये बहुत से प्रसाधु लोक में साधु कहलाते हैं; किन्तु (निर्ग्रन्थ साधु या साध्वी) असाधु को—'यह साधु है,' इस प्रकार न कहे, (अपितु) साधु को ही—'यह साधु है;' इस प्रकार कहे / / 49 / / [380] ज्ञान और दर्शन से सम्पन्न तथा संयम और तप में रत-इस प्रकार के सद्गुणों से समायुक्त (सम्पन्न) संयमी को ही साधु कहे / / 5 / / विवेचन--किसको प्रसाधु कहा जाए, किसको साधु ?–प्रस्तुत दो सूत्रगाथाओं (376. 380) में जनता में साधु नाम से प्रख्यात किन्तु वस्तुतः असाधु को साधु कहने का निषेध तथा साधु के लक्षणों से सम्पन्न को साधु कहने का विधान किया गया है / लोकव्यवहार में साधु, गुणों से असाधु-जिसे वेषभूषा या अमुक क्रियाकाण्ड से जनसाधारण में साधु कहा जाता है किन्तु जो गुणों से साधु नहीं है उसके विषय में साधु या साध्वी क्या कहे ? इसी का समाधान इन दोनों गाथाओं में है। तात्पर्य यह है कि साधु का वेष धारण करने मात्र से कोई साधु नहीं हो जाता। अतएव पूर्वोक्त गाथा में दिये गए साधु के लक्षणों से युक्त संयमी को ही साधू कहे / असाधु को वेषधारी या द्रव्यलिंगी कहा जा सकता है। परन्तु जिसका दुनिया में अपवाद नहीं है, जिसका व्यवहार शुद्ध है, प्रशंसनीय है, उसी पर से निर्णय करके उसे साधु कहना चाहिए / निश्चय तो केवली भगवान् ही जानते हैं कि कौन व्यक्ति कैसा है ? प्रकट रूप में व्यवहारशुद्धि ही देखी जाती है। जय-पराजय, प्रकृतिकोपादि एवं मिथ्यावाद के प्ररूपण का निषेध 381. देवाणं मणयाणं च तिरियाणं च बुग्गहे / अमुगाणं जो होउ, मा वा होउ ति नो वए // 50 // 382. बाओ बुठं व सीउण्हं खेमं धायं सिवं ति वा। कया णु होज्ज एयाणि ? मा वा होउ त्ति नो वए // 51 // 383. तहेव मेहं वनहं व माणवं, न देव देव त्ति गिरं वएज्जा। समुच्छिए उन्नए वा पओदे, वएज्ज वा 'वुठे बलाहए' त्ति // 52 // 36. (क) दशवकालिक सूत्र, पत्राकार (प्राचार्य श्री प्रात्मारामजी म.), प. 712, 713 (ख) जे णिवाणसाहए जोगे साधयति ते भावसाधबो भण्णं ति। --जिन. चणि, पु. 261 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org