________________ 290] [दशवकालिकसून से हो, उसे उसी प्रकार से कहना चाहिए। मिथ्या प्रशंसा या झूठी अद्भुतता व्यक्त नहीं करनी चाहिए।" भाषाशुद्धि का अभ्यास अनिवार्य 385. तहेव साववज्जणुमोयणी गिरा, ओहारिणी जा य परोवघाइणी। से कोह-लोह-भयसा व+ माणवो, न हासमाणो वि गिरं वएज्जा // 54 // 386. *सु-बक्कसुद्धि समुपेहिया मुणी, गिरं च दुट्ठ परिवज्जए सया / मियं अदुट्ठ अणुवीइ भासए, ___सयाण मज्झे लहई पसंसणं // 55 // 387. भासाए दोसे य गुणे य जाणिया, तीसे य x दुट्ठाए विवज्जए सया। छसु संजए सामणिए सया जए, वएज्ज बुद्ध हियमाणुलोमियं // 56 // - [358] इसी प्रकार जो भाषा सावध (पाप-कर्म) का अनुमोदन करने वाली हो, जो निश्चयकारिणी (और संशयकारिणी हो) एवं पर-उपघातकारिणी हो, उसे क्रोध, लोभ, भय (मान) या हास्यवश भी (साधु या साध्वी) न बोले // 54 // [386] जो मुनि श्रेष्ठ वचनशुद्धि का सम्यक् सम्प्रेक्षण करके दोषयुक्त भाषा को सर्वदा सर्वथा छोड़ देता है तथा परिमित और दोषरहित वचन पूर्वापर विचार करके बोलता है, वह सत्पुरुषों के मध्य में प्रशंसा प्राप्त करता है / / 55 / / [387] षड्जीवनिकाय के प्रति संयत (सम्यक् यतना करने वाला) तथा श्रामण्यभाव में सदा यत्नशील (सावधान) रहने वाला प्रबुद्ध (तत्त्वज्ञ) साधु भाषा के दोषों और गुणों को जान कर एवं उसमें से दोषयुक्त भाषा को सदा के लिए छोड़ दे और हितकारी तथा प्रानुलोमिक (सभी प्राणियों के लिए अनुकूल) वचन बोले // 56 // 41. (क) दशबै. (प्रा. आत्माराम जी), पत्राकार, पृ. 718-719 (ख) दशव. (संतबालजी) पृ. 99 (ग) तत्थ नभं अंतलिक्खंति वा वदेज्जा गुज्झाणुचरितं ति वा ।......."मेहोवि अंतरिक्खो भण्णइ, गुज्झगाण चरित्रो भण्णइ // -जि. च. पृ. 263 पाठान्तर-+भय-हास माणवो। * सवक्कसुद्धि / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org