________________ 282]] [दशवकालिकसूत्र कहने से मिथ्यात्व की वृद्धि होती है। साधु वर्ग की जिह्वालोलुपता द्योतित होती है / 35 प्राचार्य हरिभद्र सूरि ने कहा है-'संखडी आदि कृत्यों (भोजों) में जो मुनि सरस आहार ग्रहण करते हैं, अथवा सरस भोजन पाने के लिए ऐसे भोजों की प्रशंसा करते हैं, वे वनीपक (भिखमंगे) हैं, मुनि नहीं / ' 26 (2) वध्यस्थान पर ले जाते हुए या गिरफ्तार या दण्डित किये जाते हुए चोर को देख कर----'यह चोर महापापी है, यह जीएगा तो लोगों को बहुत सताएगा, अतः इस दुष्ट को मार डालना या कठोर दण्ड देना ही ठीक है।' ऐसा कहना ठीक नहीं। (3) तथा जल से लबालब भरी हुई बहती नदी को देख कर-"इस नदी के तट बहुत अच्छे हैं। यह सुखपूर्वक भुजाओं से तैर कर पार की जा सकती है, इसमें खूब मजे से जलक्रीड़ा की जा सकती है। अथवा यह नदी नौका से पार की जा सकती है / इसके तट पर बैठे-बैठे ही सभी प्राणी सुखपूर्वक पानी पी सकते हैं"; इत्यादि वचन साधुसाध्वी नहीं कहें; क्योंकि ऐसा कहने से अधिकरण तथा जल के तथा तदाश्रित जीवों के विघात आदि दोषों का प्रसंग उपस्थित हो सकता है / 27 / ___ 'संखडि' प्रादि शब्दों के विशेषार्थ-संखडि : दो अर्थ--(१) जिससे षट्जीवनिकाय के आयुष्य खण्डित होते हैं अर्थात् उनकी विराधना होती है, वह संखड़ी है / अथवा (2) भोज में अन्न का संस्कार किया जाता है,—पकाया जाता है, इसलिए इसे 'संस्कृति' भी कहते हैं। किच्चं : दो अर्थ(१) कृत्य- मृतक भोज, अथवा (2) पितरों या देवों के प्रीति सम्पादनार्थ किये जाने वाले 'कृत्य' 128 पणिअट्ट आदि शब्दों का भावार्थ-पणिअट्ट : पणितार्थ---चोर को देख कर मुनि चोर न कह कर सांकेतिक भाषा में पणितार्थ- (जिसे धन से ही प्रयोजन है, वह) है, ऐसा कहे या ऐसा कहे कि अपने स्वार्थ के लिए यह प्राणों को दाव पर लगा देता है। पाणिपिज्ज-प्राणिपेया-जिससे तट पर बैठे-बैठे प्राणी जल पी सकें, वे नदियां / उपिलोदगा-उत्पीडोदका-दूसरी नदियों के द्वारा जिनका जल उत्पीडित होता हो, अथवा बहुत भरने के कारण जिनका जल उत्पीड़ित हो गया हो---दूसरी ओर मुड़ गया हो; वे नदियाँ / अथवा अन्य नदियों के जल-प्रवाह को पीछे हटाने वाली। 25. (क) दशवै. पत्राकार (प्राचार्यश्री आत्माराम जी म.), पृ. 690-691 (ख) वि.च्चमेयं जं पितीण देवयाण य अठाए दिज्जइ; करणिज्जमेयं जं पियकारियं देवकारियं वा किज्जइ। --जि. चूणि, पृ. 257 26. संखडिपमुहे किच्चे, सरसाहारं खु जे पगिण्हति / भत्तठे थुब्बति, वशीमगा ते वि, न ह मणिगो / / -हारि. व., प. 219 27. दशव. (पत्राकार) (प्राचार्यश्री प्रात्माराम जी म.), पृ. 691 28. (क) 'छण्हं जीवनिकायाणं ग्राउयाणि संखंडिजति जीए सा संखडी भण्णद।' -जि. च., 5. 250 (ख) किच्चमेव धरत्येण देवपीति-मणुसकज्ज मिति / अग. चणि, प्र. 174 29. (क) पणितेनाऽर्थो यस्येति पणितार्थ:, प्राण तप्रयोजन इत्यर्थः / --हा. व.,प. 219 (ख) दशव. पत्राकार (प्राचार्य श्री प्रात्मारामजी म.). पत्र 692 (ग) तत्थिएहिं पाणीहि पिज्जतीति पाणिपिज्जायो 'उपिलोदगा' नाम जासि परनदीहि उत्पीलियाणि उदगाणि, अहवा बहस्पिलादो जासि अइभरियसणेण अण्ण नो पाणियं वच्चइ / --जिन. चणि, पृ. 250 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org