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________________ सप्तम अध्ययन : वाक्यशुद्धि] [281 संखडि एवं नदी के विषय में निषिद्ध तथा विहित वचन 367. तहेव संर्खाडि नच्चा, किच्चं कज्ज ति नो वए। तेणगं वावि वझे त्ति, सुतित्थे ति य आवगा // 36 // 368. संखडि संखडि बूया, पणियठं ति तेणगं। बहुसमाणि तित्थाणि आवगाणं वियागरे // 37 // 369. तहा नईओ पुण्णाओ कायतिन्ज ति नो वए। नावाहिं तारिमानो त्ति, पाणिज्जत्ति नो वए // 38 // 370. बहुवाहडा अगाहा बहुसलिलुप्पिलोदगा। बहुवित्थडोदगा यावि एवं भासेज्ज पण्णवं // 39 // [367] इसी प्रकार (दयालु साधु को) जीमणवार (संखडी) और कृत्य (मृतकभोज) जान कर ये करणीय हैं (अथवा ये पुण्यकार्य हैं), अथवा (यह) चोर मारने योग्य है, तथा ये नदियाँ अच्छी तरह से तैरने योग्य अथवा अच्छे घाट वाली हैं, इस प्रकार (सावध वचन) नहीं बोलना चाहिए / / 36 // [368] (प्रयोजनवश कहना पड़े तो) संखडी को (यह) संखडी है, तथा चोर को 'अपने प्राणों को कष्ट में डाल कर स्वार्थ सिद्ध करने वाला' कहे। और नदियों के तीर्थ (घाट) बहुत सम हैं, इस प्रकार विचार करके बोले // 37 / / [369] तथा ये नदियां जल से पूर्ण भरी हुई हैं; शरीर (भुजाओं) से तैरने योग्य हैं, इस प्रकार न कहे। तथा ये नौकाओं द्वारा पार की जा सकती हैं, एवं प्राणी (तट पर बैठ कर सुखपूर्वक इनका जल) पी सकते हैं. ऐसा भी न बोले / / 38 / / [370] (प्रयोजनवश कभी कहना पड़े तो) (ये नदियां) प्रायः जल से भरी हुई हैं; अगाध (अत्यन्त गहरी) हैं, (इनका जलप्रवाह) बहत-सी नदियों के प्रवाह को हटा रहा है, अत: ये बहुत विस्तृत जल (चौड़े पाट) वाली हैं,-प्रज्ञावान् भिक्षु इस प्रकार कहे // 36 // विवेचन-संखडी प्रावि के विषय में अवाच्य-वाच्य-वचनविवेक-प्रस्तुत चार सूत्रगाथानों (367 से 370 तक) में संखडो, चोर, नदी के घाट, नदी के पानी आदि के विषय में साधु-साध्वी को कैसे व वन नहीं कहने चाहिए? और कैसे कहने चाहिए ? इसका विवेक बताया गया है। संखडी आदि के सम्बन्ध में अवाच्य बचन कहने में दोष-(१) कोई साधु या साध्वी किसी ग्राम, नगर या कस्बे आदि में जाए और वहाँ किसो गृहस्थ के यहाँ श्राद्ध, भोज आदि की जीमनवार होती हुई देखे, तब मुनि इस प्रकार से न बोले कि-'यह श्राद्ध या मृतकभोज अथवा जीमणवार गृहस्थ को अवश्य करने चाहिए; ये कार्य पुण्यवर्द्धक हैं।' क्योंकि इस प्रकार कहने से भोजन तैयार करने में होने वाले प्रारम्भ-समारम्भ का अनुमोदन होता है जो हिंसाजनक है, तथा ऐसे अयोग्य वचन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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