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________________ 278] [ दशवकालिकसूत्र 366. विरूढा बहुसंभूया थिरा ऊसढा वि य / गनिमयाओ पसूयाओ ससाराओ ति पालवे // 35 // [357-358] इसी प्रकार उद्यान में, पर्वतों पर अथवा वनों में जाकर (अथवा गया हुआ या रहा हुआ) (वहाँ) बड़े-बड़े वृक्षों को देख कर प्रज्ञावान् साधु इस प्रकार न बोले-'ये वृक्ष प्रासाद, स्तम्भ, तोरण (नगरद्वार), घर, (नाना प्रकार के गृह), परिध, अर्गला एवं नौका तथा जल की कुंडी (--उदक-द्रोणी या रेहट की घड़िया) बनाने के लिए उपयुक्त-योग्य हैं / / 26-27 // [356] (ये वृक्ष) पीठ (चौकी या बाजोट), काष्ठपात्र (चंगबेर), हल (नंगल), तथा मयिक (मड़े-बोये हुए बीजों को या अनाज के ढेर को ढांकने के लिए लकड़ी के ढक्कन), यंत्रयष्टि (कोल्हू की लाट), गाड़ी के पहिये की नाभि अथवा अहरन (गण्डिका) रखने को काष्ठनिर्मित वस्तु के लिए उपयुक्त हो सकते हैं; (इस प्रकार न कहे / ) // 28 // [360] (इसी प्रकार इस वृक्ष में) आसन, शयन (सोने के लिए पट्टा), यान (रथ अादि) और उपाश्रय के (लिए) उपयुक्त कुछ (काष्ठ) हैं-इस प्रकार को भूतोपघातिनी (प्राणिसंहारकारिणी) भाषा प्रज्ञासम्पन्न साधु (या साध्वी) न बोले // 26 / / [361-362] (कारणवश) उद्यान में, पर्वतों पर या वनों में जा कर (रहा हुआ या गया हुआ) प्रज्ञावान् साधु वहां बड़े-बड़े वृक्षों को देख (प्रयोजनवश कहना हो तो) इस प्रकार (निरवद्यवचन) कहे-'ये वृक्ष उत्तम जाति वाले हैं, दीर्घ (लम्बे) हैं, गोल (वृत्त) हैं, महालय (अति विस्तृत या स्कन्धयुक्त) हैं, बड़ी-बड़ी फैली हुई शाखाओं वाले एवं छोटो-छोटी प्रशाखामों वाले हैं तथा दर्शनीय हैं, इस प्रकार बोले // 30-31 // [363] तथा ये फल परिपक्व हो गए हैं, (अथवा) पका कर खाने के योग्य हैं, (इस प्रकार साधु-साध्वी) न कहें / तथा ये फल (ग्रहण)-कालोचित (अविलम्ब तोड़नेयोग्य) हैं, इनमें गुठली नहीं पड़ी, (ये कोमल) हैं; ये दो टुकड़े (फांक) करने योग्य हैं--इस प्रकार भी न बोले / / 32 / / __ [364] (प्रयोजनवश बोलना पड़े तो) "ये आम्रवृक्ष फलों का भार सहने में असमर्थ हैं, बहुनिर्वतित (बद्धास्थिक हो कर प्रायः निष्पन्न) फल वाले हैं, बहु-संभूत (एक साथ बहुत-से उत्पन्न एवं परिपक्व फल वाले) हैं अथवा भूतरूप (प्रबद्धास्थिक होने से कोमल अथवा अद्भुतरूप वाले) हैं। इस प्रकार बोले // 33 // [365] इसी प्रकार (विचारशील साधु या साध्वी)-'ये गेहूं, ज्वार, बाजरा, चावल आदि धान्यरूप) ओषधियाँ पक गई हैं तथा (चोला, मूग आदि को फलियाँ) नोलो (हरी) छवि (छाल) वाली (होने से प्रभो अपक्व) हैं, (ये धान्य) काटने योग्य हैं, ये भूनने योग्य हैं, अग्नि में सेक (अर्धपक्व) कर खाने योग्य हैं। इस प्रकार न कहे / / 34 // [366] (यदि प्रयोजनवश कुछ कहना हो तो) ये (गेहूँ आदि अनरूप) प्रोषधियाँ अंकुरित (प्ररूढ) हो गई हैं, प्रायः निष्पन्न हो गई हैं, स्थिरोभूत हो गई हैं, उपघात से पार हो गई हैं। अभी कण गर्भ में हैं (सिट्ट नहीं निकले हैं) या कण गर्भ से बाहर निकल आये हैं, या सिट्टै परिपक्व बोज वाले हो गये हैं, इस प्रकार बोले / / 3 / / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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