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________________ सप्तम अध्ययन : वाक्यशुद्धि] [279 विवेचन-वक्षों और वनस्पतियों के विषय में अवाच्य एवं वाच्य का निर्देश प्रस्तुत 10 सूत्रगाथाओं (357 से 366 तक) में से प्रथम 6 गाथाओं में वृक्षों के सम्बन्ध में, तत्पश्चात् दो गाथाओं में फलों के सम्बन्ध में और अन्त में दो गाथाओं में प्रोषधियों (विविध धान्यों) के विषय में सावद्यभाषा बोलने का निषेध और साधुमर्यादोचित निरवद्य भाषा बोलने का विधान किया गया है। वृक्षों एवं वनस्पतियों के सम्बन्ध में निषेध (अवाच्य) का कारण-किसी वृक्ष को देख कर चौकी, पट्टा, खाट, कुर्सी प्रादि चीजें इस वृक्ष से बन सकती हैं. इस प्रकार कहने से वनस्वामी व्यन्तरादि देव के कुपित हो जाने की संभावना है, अथवा वृक्ष के विषय में साधु के द्वारा इस प्रकार का सावध कथन सुन कर संभव है कोई उस वृक्ष को अपने कार्य के लिए उपयुक्त जानकर छेदन-भेदन करे / इस प्रकार के सावद्य वचन से साधु की भाषासमिति एवं वचनगप्ति की रक्षा न होने से वह दोषयुक्त हो जाती है, जिससे संयमरक्षा या आत्मरक्षा खतरे में पड़ जाती है / अवाच्य होने का यही कारण वनस्पतियों के विषय में भी समझना चाहिए। साधु या साध्वी को विशेष रूप से यह ध्यान रखना चाहिए कि उन्हें वक्षों, फलों या धान्यों आदि के विषय में तभी निरवद्य भाषा में बोलना उचित है, जब कोई विशेष प्रयोजन हो / बिना किसी कारण के यों ही लोगों को वक्षों आदि के सम्बन्ध कहते रहने से भाषा में निरवद्यता के स्थान पर सावधता आए बिना नहीं रह सकती / हित, मित एवं निरवद्य भाषण में ही संयमरक्षा एवं श्रात्मरक्षा है।" 'पासाय' आदि शब्दों के प्रर्थ-पासाय: प्रासाट-एक खम्भे वाला मकान या जिसे देख कर लोगों का मन और नेत्र प्रसन्न हों। फलिहऽग्गला-परिध अर्गल-नगरद्वार की पागल को परिघ और गृहद्वार की प्रागल को अर्गला कहते हैं / उदगदोणिणं-उदकद्रोणि : चार अर्थ-(१) एक काष्ठ से निर्मित जलमार्ग, (2) काष्ठ की बनी हुई प्रणाली, (घड़िया) जिससे रेहट आदि के जल का संचार हो / (3) रेहट की घड़ियाँ, जिसमें पानी डालें, वह जलकुण्डी या (4) काष्ठनिमित बड़ी कुण्डी, जो कम पानी वाले देशों में भर कर रखी जाती है। चंगबेरे-काष्ठपात्री, चंगेरी / मइय-मयिक-बोए हुए खेत को सम करने के लिए उपयोग में आने वाला एक कृषि-उपकरण / गंडिया-गण्डिका : चार अर्थ-(१) सुनारों की अहरन, (2) काष्ठनिर्मित अधिकरिणी, (3) काष्ठफलक या (4) प्लवनकाष्ठ (जल पर तैरने के लिए काष्ठ---जलसंतरण) / उवस्सय-उपाश्रय : दो अर्थ-(१) आश्रयस्थान अथवा (2) उपाश्रय-साधुओं के रहने का स्थान / दोहा वट्टा महालया-वृक्ष के ये विशेषण हैं। नारिकेल, ताड़ आदि वृक्ष दीर्घ (लम्बे) होते हैं। अशोक नन्दी अादि वृक्ष वृत्त (गोल) होते हैं ; बरगद आदि वृक्ष महालय होते हैं, जो अत्यन्त विस्तृत होने से अनेकविध पक्षियों के लिए आधारभूत हों। पयायसाला--प्रजातशाखा-जिनके बड़ी-बड़ी शाखाएँ फटी हों। विडिमा-विटपी: दो अर्थ-(१) 20. (क) दशवं. पत्राकार (प्राचार्यश्री आत्मारामजी म.) पत्र 679, 685 (ख) दशवं. (संतबालजी) पृ. 94 21. दशवकालिक, पत्राकार (प्राचार्य श्री आत्मारामजी म.) पृ. 682 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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