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________________ प्रस्तुत अध्ययन में अनाचारों की संख्या का उल्लेख नहीं हरा है और न अगस्यसिंह स्थविर ने अपनी चणि में और न जिनदासगणी महत्तर ने अपनी चणि में संख्या का निर्देश किया है। समयसुन्दर ने दीपिका में अनाचारों को 54 संख्या का निर्देश किया है।६५ यद्यपि अगस्तसिंह स्थविर ने संख्या का उल्लेख नहीं किया है तो भी उनके अनुसार अनाचारों की संख्या 52 है, पर दोनों में अन्तर यह है कि अगस्त्यसिंह ने राजपिण्ड और किमिच्छक को व सैन्धव और लवण को पृथक-पृथक् न मानकर एक-एक माना है। जिनदासगणी ने राजपिण्ड और किमिच्छक को एक न मानकर अलग-अलग माना है तथा सैन्ध्रव और लवण को एवं गात्राभ्यंग और विभूषण को एक-एक माना है। दशवकालिक के टीकाकार प्राचार्य हरिभद्र ने तथा सुमति साधु मूरि ने अनाचारों की संख्या 53 मानी है, उन्होंने राजपिण्ड और किमिच्छक को एक तथा सैन्धव और लवण को पृथक-पृथक माना है। इस प्रकार अनावारों की संख्या 54, 53 और 52 प्राप्त होती है। संख्या में भेद होने पर भी तात्त्विक दृष्टि से कोई भेद नहीं है। अनाचारों का निरूपण संक्षेप में भी किया जा सकता है, जैसे सभी सचित्त वस्तुओं का परिहार एक माना जाए तो अनेक अनाचार स्वतः कम हो सकते हैं। जो बातें श्रमणों के लिए वयं हैं वस्तुतः वे सभी अनाचार हैं / प्रस्तुत अध्ययन में बहुत से अनानारों का उल्लेख नहीं है किन्तु अन्य आगमों में उन अनाचारों का उल्लेख हुअा है। भले ही वे बातें अनाचार के नाम से उल्लिखित न की गई हों, किन्तु वे बातें जो श्रमण के लिए त्याज्य हैं, अनाचार ही हैं। यहां एक बात का ध्यान रखना होगा कि कितने ही नियम उत्सर्ग मार्ग में अनाचार हैं, पर अपवादमार्ग में वे अनाचार नहीं रहते, पर जो कार्य पापयुक्त हैं, जिनका हिसा से साक्षात् सम्बन्ध है, वे कार्य प्रत्येक परिस्थिति में अनाचीर्ण ही हैं। जैसे--- सचित्त भोजन, रात्रिभोजन आदि / जो नियम संयम साधना की विशेष विशुद्धि के लिए बनाए हुए हैं. वे नियम अपवाद में अनाचीणं नहीं रहते। ब्रह्मचर्य की दृष्टि से गहस्थ के घर पर बैठने का निषेध किया गया है। पर श्रमण रुग्ण हो, वृद्ध या तपस्वी हो तो वह विशेष परिस्थिति में बैठ सकता है। उसमें न तो ब्रह्मचर्य के प्रति शंका उत्पन्न होती है और न अन्य किसी भी प्रकार की विराधना की ही संभावना है। इसलिए वह अनाचार नहीं है / 86 जो कार्य सौन्दर्य की दृष्टि से शोभा या गौरव की दृष्टि से किए जायें वे अनाचार हैं पर वे कार्य भी रुग्णावस्था आदि विशेष परिस्थिति में किये जायें तो अनाचार नहीं हैं। उदाहरण के रूप में नेत्र-रोग होने पर अंजन आदि का उपयोग कितने ही अनाचारों के सेवन में प्रत्यक्षा हिसा है, कितने ही अनाचारों के सेवन से वे हिंसा के निमित्त बनते हैं और कितने ही अनाचारों के सेवन में हिंसा का अनुमोदन होता है, कितने ही कार्य स्वयं में दोषपूर्ण नहीं है किन्तु बाद में वे कार्य शिथिलाचार के हेतु बन सकते हैं, अतः उनका निषेध किया गया है। इस प्रकार अनेक हेतु अनाचार के सेवन में रहे हुए हैं। जैन परम्परा में जो आचारसंहिता है, उसके पीछे अहिंसा, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य का दृष्टिग प्रधान है। अन्य भारतीय परम्पराओं ने भी यूनाधिक रूप से उसे स्वीकार किया है। स्नान तथागत बुद्ध ने पन्द्रह दिन से पहले जो भिक्षु स्नान करता है उसे प्रायश्चित्त का अधिकारी माना है। यदि कोई भिक्ष विशेष परिस्थिति में पन्द्रह दिन से पहले नहाता है तो पाचित्तिय है। विशेष परिस्थिति यह 25. सर्वमेतत पूर्वोक्तचतुःपञ्चाशद्भदभिन्नमौद्दे शिकतादिकं यदनन्तरमुक्तं तत् सर्वमनाचरितं ज्ञातव्यम् / -दीपिका (दशकालिक), पृ.७ 86. तिहमन्नवरागस्स निसेज्जा जस्स कप्पइ। जराए अभिभूयस्स वाहियस्स तवस्सियो / -दशवकालिक 659 [32] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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