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________________ ले रही हैं, विकारों के सर्प फन फैलाकर फूत्कारें मार रहे हैं, तो वहाँ श्रमणत्व नहीं रह सकता। रथनेमि की तरह जिसका मन विकारी है और विषयसे बन के लिए ललक रहा है वह केवल द्रव्यसाधु है, भावसाधु नहीं। इस प्रकार के श्रमण भर्त्सना के योग्य हैं। जब रथनेमि भटकते हैं और भोग की अभ्यर्थना करते हैं तो राजीमती संयम में स्थिर करने हेतु उन्हें धिक्कारती है। काम और श्रामण्य का परस्पर विरोध है, जहाँ काम है, वहाँ श्रामण्य का अभाव है। त्यागी वह कहलाता है जो स्वेच्छा से भोगों का परित्याग करता है। जो परवशता से भोगों का त्याग करता है, उसमें वैराग्य का प्रभाव होता है, वहाँ विवशता है, त्याग की उत्कट भावना नहीं। प्रस्तुत अध्ययन में कहा गया है-जीवन वह है जो विकारों से मुक्त हो। यदि विकारों का धुपा छोड़ने हाए अधं-दग्ध कण्ड की तरह जीवन जीया जाए तो उस जीवन से तो मरना ही श्रेयस्कर है। एक क्षण भी जीयो जीप्रो किन्तु चिरकाल तक धुपा छोड़ते हुए जीना उचित नहीं / अगन्धन जाति का सर्प प्राण गँवा देना पसन्द करेगा किन्तु परित्यक्त विष को पुनः ग्रहण नहीं करेगा। वैसे ही श्रमण परित्यक्त भोगों को पून: ग्रहण नहीं करता है / विषवन्त जातक में इसी प्रकार का एक प्रसंग आया है--सर्प प्राग में प्रविष्ट हो जाता है किन्तु एक बार छोड़े हुए विष को पुनः ग्रहण नहीं करता / 82 इस अध्ययन में भगवान् अर्हत अरिष्टनेमि के भ्राता रथनेमि का प्रसंग है जो गुफा में ध्यान मुद्रा में अवस्थित हैं, उसी गुफा में वर्षा से भीगी हुई राजीमती अपने भीगे हुए वस्त्रों को सुखाने लगी, राजीमती के अंग-प्रत्यंगों को निहार कर रथनेमि के भाव कलुषित हो गये। राजीमती ने कामविह्वल रथनेमि को सुभाषित वचनों से संयम में सुस्थिर कर दिया। नियंक्तिकार का अभिमत है कि द्वितीय अध्ययन की विषय-सामग्री प्रत्याख्यानपूर्व की तृतीय वस्तु से ली गई है। 83 आचार और अनाचार तृतीय अध्ययन में क्षुल्लक प्राचार का निरूपण है / जिस साधक में धृति का अभाव होता है वह प्राचार व को नहीं समझता, वह प्राचार को विस्मृत कर अनाचार की ओर कदम बढ़ाता है। जो प्राचार मोक्ष-साधना के लिए उपयोगी है, जिस प्राचार में अहिंसा का प्राधान्य है, वह सही दृष्टि से आचार है और जिसमें इनका अभाव है वह अनाचार है। प्राचार के पालन से संयम-साधना में सुस्थिरता पाती है। प्राचारदर्शन मानव को परम शुभ प्राप्त करने का मार्ग प्रशस्त करता है। कौनसा आचरण औचित्यपूर्ण है और कौनसा अनौचित्यपूर्ण है, इसका निर्णय विवेकी साधक अपनी बुद्धि की तराज पर तौल कर करता है। जो प्रतिषिद्ध कर्म, प्रत्याख्यातव्य कर्म या अनाचीर्ण कर्म हैं, उनका वह परित्याग करता है। ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वीर्य जो आचरणीय हैं उन्हें वह ग्रहण करता है। आचार, धर्म या कर्तव्य है, अनाचार अधर्म या अकर्तव्य है। प्रस्तुत अध्ययन में अनाचीर्ण कर्म कहे गये हैं। अनाचीणों का निषेध कर आचार या चर्या का प्रतिपादन किया गया है। इसलिए इस अध्ययन का नाम प्राचारकथा है। दशवकालिक पन में 'महाचार-कथा' का निरूपण है। उस अध्ययन में विस्तार के साथ प्राचार पर चिन्तन किया गया है तो इस अध्ययन में उस अध्ययन की अपेक्षा संक्षिप्त में प्राचार का निरूपण है। इसलिए इस अध्ययन का नाम 'क्षुल्लकाचारकथा' दिया गया है। 14 82. धिरस्थ तं दिसं वन्तं, यमहं जीवितकारणा। वन्तं पच्चावमिस्सामि, मतम्मे जीविता बरं // -जातक, प्रथम खण्ड, पृ. 404 83. सच्चप्पवायपध्वा निज्जढा होइ वक्कसद्धी उ / अवसेसा निज्जूढा नवमस्स उ तइयवस्थनो // --नियुक्ति गाथा 17 84. एएसि महंताण पडिववखे खड्डया होति / / ---नियुक्ति गाथा 178 [ 31 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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