________________ माना है / 75 प्राचार्य कार्तिकेय ने वस्तु के स्वभाव को धर्म कहा है,७६ जिससे स्वभाव में अवस्थिति और विभाव दशा का परित्याग होता है। च कि स्व-स्वभाव से ही हमारा परम श्रेय सम्भव है और इस दृष्टि से वही धर्म है। धर्म का लक्षण प्रात्मा का जो विशुद्ध स्वरूप है और जो अादि-मध्य-अन्त सभी स्थितियों में कल्याणकारी है-वह धर्म है। 77 वैशेषिक दर्शन का मन्तव्य है जिससे अभ्युदय और निश्रेयस् की सिद्धि होती है-वह धर्म है।७८ इस प्रकार भारतीय मनीषियों ने धर्म की विविध दृष्टियों से व्याख्या की है, तथापि उनकी यह विशेषता रही है कि उन्होंने किसी एकांगी परिभाषा पर ही बल नहीं दिया, किन्तु धर्म के विविध पक्षों को उभारते हुए उनमें समन्वय की अन्वेषणा की है। यही कारण है कि प्रत्येक परम्परा में धर्म की विविध व्याख्याएँ मिलती हैं। दशवकालिक में धर्म की सटीक परिभाषा दी गई है-अहिंसा, संयम और तप ही धर्म है। वही धर्म उत्कृष्ट मंगल रूप में परिभाषित किया गया है। वह धर्म विश्व-कल्याणकारक है। इस प्रकार लोक-मंगल की साधना में व्यक्ति के दायित्व की व्याख्या यहां पर की गई है। जिसका मन धर्म में रमा रहता है, उसके चरणों में ऐश्वर्य शाली देव भी नमन करते हैं। धर्म की परिभाषा के पश्चात् अहिंसक श्रमण को किस प्रकार पाहार-ग्रहण करना चाहिए, इसके लिए 'मधुकर' का रूपक देकर यह बताया है कि जैसे मधुकर पुष्पों से रस ग्रहग करता है वैसे ही श्रमणों को गृहस्थों के यहां से प्रासुक आहार-जल ग्रहण करना चाहिए। मधुकर फूलों को बिना म्लान किए थोड़ा-थोड़ा रस पीता है, जिससे उसकी उदरपूर्ति हो जाए। मधुकर दूसरे दिन के लिए संग्रह नहीं करता, वैसे ही श्रमण संयमनिर्वाह के लिए जितना आवश्यक हो उतना ग्रहण करता है, किन्तु संचय नहीं करता। मधुकर विविध फूलों से रस ग्रहण करता है, वैसे ही श्रमण विविध स्थानों से भिक्षा लेता है। इस प्रकार प्रस्तुत अध्ययन में अहिंसा और उसके प्रयोग का निर्देश किया गया है। भ्रमर की उपमा जिस प्रकार दशवकालिक में श्रमण के लिए दी गई है, उसी प्रकार बौद्ध साहित्य में भी यह उपमा प्राप्त है और वैदिक परम्परा के ग्रन्थों में भी इस उपमा का उपयोग हुग्रा है।' संयम में श्रम करने वाला साधक श्रमण को अभिधा से अभिहित है। श्रमण का भाव श्रमणत्व या श्रामण्य कहलाता है। बिना धृति के श्रामण्य नहीं होता, धति पर ही थामण्य का भव्य प्रासाद अवलम्बित है। जो धृतिमान् होता है, वही कामराग का निवारण करता है। यदि अन्तर्मानस में कामभावनाएं अंगड़ाइयाँ 75. अमोलकसूक्तिरत्नाकार, पृष्ठ 27 76. कार्तिकेय-अनुप्रेक्षा, 478 77. अभिधानराजेन्द्र कोष, खण्ड 4, पृष्ठ 2669 78. यतोऽभ्युदयनिःश्रेयससिद्धिः स धर्मः। -वैशेषिकदर्शन 212 79. (क) दशवकालिक 111 (ख) योगशास्त्र 4 / 100 80. धम्मपद 416 81. यथामधु समादत्त रक्षन् पुष्पाणि षट्पदः / तद्वदर्थान् मनुष्येभ्य प्रादद्याद् अविहिसपा / --महाभारत, उद्योग पर्व, 34117 [30] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org