________________ छठा अध्ययन : महाचारकथा] 'जाततेयं' प्रादि शब्दों की व्याख्या : जाततेयं-जाततेज-जो उत्पत्तिकाल से ही तेजस्वी हो, सूर्य उदयकाल में मृदु और मध्याह्न में तीव्र होता है, अतः वह जाततेज नहीं है / स्वर्ण जाततेज नहीं . है, परिकर्म से तेजस्वी बनता है, अग्नि परिकर्म के बिना उत्पत्ति के साथ ही तेजस्वी होती है, अतः इसे 'जाततेज' कहा गया है / पावक भी अग्नि का पर्यायवाची नाम है, जाततेज उसका विशेषण है।३८ तिक्खमन्नयरं सत्यं-अग्नि तीक्ष्णतम शस्त्र है। कई शस्त्र एक धार वाले, कई दो धार, तीन धार, चार धार अथवा पांच धार वाले हैं ग्नि सर्वतोधार--सब ओर से धार वाला शस्त्र है / अजानुफल पांच धारवाले शस्त्र होते हैं, सभी शस्त्रों में अग्नि जैसा तीक्ष्णतर कोई शस्त्र नहीं है / अन्यतर का अर्थ है-प्रधान शस्त्र। सबसे तीक्ष्ण या सर्वतोधार अथवा तीक्ष्णशस्त्रों में प्रधान शस्त्र / अग्नि सर्वतोधार है, इसलिए इसे 'सर्वतोदुराश्रय' कहा गया है। अर्थात्-इसे अपने आश्रित करना कठिन है / हव्यवाहो-हव्यवाह-देवतृप्ति के लिए होम किये जाने वाले घृत आदि हव्य द्रव्यों का जो वहन करे वह हव्यवाह है, यह अग्नि का पर्यायवाची शब्द है / आघाओ-प्राघातप्राणियों के प्राघात (विनाश) का हेतु होने से इसे आघात कहा गया है। सावज्जबहुलं-प्रचुर पापयुक्त / सावध शब्द का अर्थ है-अवद्य-पाप सहित / उईरंति-उदीरयन्ति-प्रेरित करते हैं--- प्रयत्नपूर्वक उत्पन्न करते हैं।' तेरहवाँ प्राचारस्थान : प्रथम उत्तरगुण प्रकल्प्य-वर्जन 309. जाइं चत्तारिऽमोज्जाइं इसिणाऽऽहारमाइणि / ताई तु विवज्जेंतो संजमं अणुपालए // 46 // 38, (क) जात एव जम्मकाल एव तेजस्वी, म तहा आदिच्चो, उदये सोमो मज्झे तिव्वो। -प्र. च., प. 150 (ख) जायते तेजमुप्पत्तीसमकमेव जस्स सो जायतेयो भवति / जहा सुवण्णादीणं परिक्कम्मणाविसे सेण तेयाभिसम्बन्धो भवति, ण तहा जायतेयस्स। -जि. चू., पृ. 224 39. (क) सासिज्जइ जेण तं सत्थं, किंचि एगधारं, दुधारं, तिधारं, चउधारं, पंचधार, सवतो धारं नत्थि, मोत्तु मगणिमेगं / तत्थ एगधारं, परसु, दुधारं कणयो, तिधारं असि, चउधारं तिपडतो कणीयो, पंचधारं अजानुफलं, सब्वनो धारं अगी। एतेहिं एगधार-दुधार-तिधार-चउधार-पंचधारेहि सत्थेहि अण्णं नथि सत्थं, अगणिसत्याग्रो तिक्खतरमिति। -जिनदासणि, प. 224 (ख) 'तीक्ष्णं' छेदकरणात्मकम, 'अन्यतरत शस्त्र'-सर्वशस्त्रम् / सर्वतोधारशस्त्रकल्पमिति भावः / -हारि, वृत्ति, पत्र 201 (ग) अण्णतरामोत्ति पधाणाम्रो। -अग. चूणि, पृ. 150 (घ) सब्धयोवि दुरासयं नाम एतं सत्थं सब्वतोधारत्तणेण दुक्खमाश्रयत इति दुराश्रयं / -जिनदासचूणि, पृ. 224 (ङ) अणुदिसायो-अंतरदिसायो। -अग. चणि, पृ. 150 (च) वहतीति वाहो, हव्वं नाम जं हूयते घयादि तं हवं भण्णइ। ---जि. चु., पृ. 225 (छ) 'हव्यवाह'-अग्निः / एष प्राघातहेतुत्वादाघातः। -हारि. वृत्ति, पत्र 201 (ज) 'सावज्जबहुलं-पापभूयिष्ठम्'। --हारि. वृत्ति, पत्र 201 (झ) दसवेयालियं (मुनि नथमलजी), पृ. 321 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org