________________ 250] [दशवकालिकसूत्र [305] इसलिए इसे दुर्गतिवर्द्धक दोष जान कर (साधुवर्ग) जीवन भर वनस्पतिकाय के समारम्भ का त्याग करे / / 42 / / [306] सुसमाधियुक्त संयमी (साधु-साध्वी) मन, वचन, काया-इस त्रिविध योग तथा कृत, कारित और अनुमोदन-इस त्रिविध करण से त्रसकायिक जीवों की हिंसा नहीं करते / / 43 / / [307] त्रसकाय की हिंसा करता हुमा (साधु) उसके आश्रित रहे हए अनेक प्रकार के चाक्षुष (दृश्यमान) और अचाक्षुष (अदृश्य) त्रस और स्थावर प्राणियों की हिंसा करता है / / 44 / / [308] इसलिए इसे दुर्गतिवर्द्धक दोष जान कर (साधुवर्ग) जीवनपर्यन्त त्रसकाय के समारम्भ का त्याग करे / / 45 / / विवेचन--षटकायिक जीवों की हिंसा का त्याग-प्रस्तुत 20 सूत्रगाथानों (289 से 308 तक) में क्रमश: पृथ्वीकाय आदि षड्जीवनिकायों की हिंसा का त्याग साधुवर्ग को क्यों और किस प्रकार से करना चाहिए? इसका प्रतिपादन किया गया है / पृथ्वीकायादि की हिंसा का त्याग क्यों करना चाहिए? इसके उत्तर में शास्त्रकार कहते हैं-इन षड्जीवनिकायों की हिंसा करते समय व्यक्ति उस-उस काय के अतिरिक्त उसके आश्रित कई प्रकार के त्रस एवं स्थावर, आँखों से दीखने वाले और न दीखने वाले जीवों का भी संहार करता है। इन षटकायिक जीवों की हिंसा से दुर्गति (नरक या तिर्यञ्च गति) तो मिलती ही है, किन्तु उसकी उत्तरोत्तर वृद्धि होती जाती है, अर्थात्--- कुगतियों में जन्ममरण की परम्परा बढ़ती जाती है। यह दोष अतीव भयंकर और आत्मगुणों का विघातक है, यह जानकर इनकी हिंसा का त्याग करना अनिवार्य है / 36 इनकी हिंसा का त्याग किस प्रकार से ?-(1) सामान्यतया षटकायिक जीवों की हिंसा के त्याग की विधि इस प्रकार बताई गई है-तीन करण और तीन योग से पृथ्वीकायादि छह जीवनिकायों की हिंसा एवं समारम्भ का त्याग जीवन भर के लिए करे। (2) विशेष रूप से प्रत्येक जीवनिकाय के जीवों की हिंसा के त्याग की विधि पृथक-पृथक् भी बताई गई है / वैसे तो 'षड्जीवनिकाय' नामक चतुर्थ अध्ययन में प्रत्येक जीवनिकाय से सम्बन्धित प्रकार और उसकी हिंसा के विविध प्रकारों का उल्लेख किया गया है, इसलिए यहाँ उसकी विशेष चर्चा नहीं की गई है। प्रस्तुत में तेजस्काय एवं वायुकाय की हिंसा के त्याग के सम्बन्ध में विशेष प्रकाश डाला गया है—अग्नि अन्य शस्त्रों से अधिक तीक्ष्ण शस्त्र है. सर्वतः दराश्रय. सर्व दिशाओं-विदिशानों में संहारक हो जाती है वहाँ रहे हुए सभी जीवों को भस्म करती है। यह प्रचुर प्राणियों के लिए विघातक है / अतः संयमी साधुवर्ग ताप और प्रकाश दोनों के लिए अग्नि का जरा भी प्रयोग न करे / वायुकाय का समारम्भ भी अग्निकायसदृश घोर विघातक है, सावद्यबहुल है, वायी साधुवर्ग के द्वारा अनासेवित है / अतः ताड़पत्र के पंखे, पत्ते, शाखा अथवा अन्य किस्म के पंखे आदि से तथा वस्त्र, पात्र, कम्बल या रजोहरण से हवा नहीं करनी चाहिए। यतनापूर्वक वस्त्रादि उपकरणों को रखना-उठाना या धारण करना चाहिए। 37 36. (क) दसवेयालियसुत्त (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त), पृ. 41-42-43 (ख) दशवै. (आचार्य श्री आत्मारामजी म.) 37. दसवेयालियसुत्तं (मूलपाठ टिप्पणयुक्त), पृ. 42 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org