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________________ छठा अध्ययन : महाचारकथा] [249 [291] इसलिए इसे दुर्गतिवर्द्धक दोष जान कर यावज्जीवन पृथ्वीकाय के समारम्भ का त्याग करे // 28 // [262] सुसमाधिमान् संयमी मन, वचन और काय-इस त्रिविध योग से तथा कृत, कारित और अनुमोदन,—इस त्रिविध करण से अप्काय की हिंसा नहीं करते // 26 // [293] अप्कायिक जीवों की हिंसा करता हुआ (साधक) उनके आश्रित रहे हुए विविध चाक्षुष (दृश्यमान) और अचाक्षुष (अदृश्यमान) त्रस और स्थावर प्राणियों की हिंसा करता है / / 30 / / [294] इसलिए इसे दुर्गतिवद्धक दोष जान कर (साधुवर्ग) यावज्जीवन अप्काय के समारम्भ का त्याग करे // 31 // [265] (साधु-साध्वी) जाततेज-अग्नि को जलाने की इच्छा नहीं करते; क्योंकि वह दूसरे शस्त्रों की अपेक्षा तीक्ष्ण शस्त्र तथा सब ओर से दुराश्रय है // 32 / / [266] वह (अग्नि) पूर्व, पश्चिम, दक्षिण, उत्तर और ऊर्ध्वदिशा तथा अधोदिशा और विदिशाओं में (सभी जीवों का) दहन करती है / / 33 / / [297] निःसन्देह यह हव्यवाह (अग्नि) प्राणियों के लिए प्राघातजनक है। अतः संयमी (साधु-साध्वी) प्रकाश (प्रदीपन) और ताप (प्रतापन) के लिए उस (अग्नि) का किंचिन्मात्र भी आरम्भ न करें // 34 // [268] (अग्नि जीवों के लिए विघातक है); इसलिए इसे दुर्गतिवर्द्धक दोष जान कर (साधुवर्ग) जीवन-पर्यन्त अग्निकाय के समारम्भ का त्याग करे // 35 / / [26] बुद्ध (तीर्थंकरदेव) वायु (अनिल) के समारम्भ को अग्निसमारम्भ के सदृश ही मानते हैं। यह सावद्य-बहल (प्रचर पापयुक्त) है। अतः यह षटकाय के त्राता साधनों के द्वारा आसेवित नहीं है // 36 // [300] (इसलिए) वे (साधु-साध्वी) ताड़ के पंखे से, पत्र (पत्ते) से, वृक्ष की शाखा से, अथवा पंखे से (स्वयं) हवा करना तथा दूसरों से हवा करवाना नहीं चाहते (और उपलक्षण से अनुमोदन भी नहीं करते हैं / ) // 37 / / 301] जो भी वस्त्र, पात्र, कम्बल या रजोहरण हैं, उनके द्वारा (भी) वे वायु की उदीरणा नहीं करते, किन्तु यतनापूर्वक वस्त्र-पात्रादि उपकरण को धारण करते हैं // 38 / / [302] (वायुकाय सावद्य-बहुल है) इसलिए इस दुर्गतिवर्द्धक दोष को जान कर (साधुवर्ग) जीवनपर्यन्त वायुकाय-समारम्भ का त्याग करे // 36 // [303] सुसमाहित संयमी (साधु-साध्वी) मन, वचन और काय-इस त्रिविध योग से तथा कृत, कारित और अनुमोदन-इस त्रिविध करण से वनस्पतिकाय की हिंसा नहीं करते / / 40 / / [304] वनस्पतिकाय की हिंसा करता हुआ (साधु) उसके आश्रित विविध चाक्षुष (दृश्यमान) और अचाक्षुष (अदृश्य) त्रस और स्थावर प्राणियों की हिंसा करता है / / 41 / / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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