SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 321
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ छट्ठा अध्ययन : महाचारकथा] [239 277. तं अप्पणा न गेण्हंति, नो वि गेण्हावए परं। ___ अन्नं वि गेण्हमाणं पि, नाणुजाणंति संजया // 14 // [276-277] संयमी साधु-साध्वी, पदार्थ सचेतन (सजीव) हो या अचेतन (निर्जीव), अल्प हो या बहुत, यहाँ तक कि दन्तशोधन मात्र (दाँत कुरेदने के लिए एक तिनका) भी हो, जिस गृहस्थ के अवग्रह (अर्थात्-अधिकार) में हो; उससे याचना किये बिना (अथवा आज्ञा लिए बिना) उसे स्वयं ग्रहण नहीं करते, दूसरों से ग्रहण नहीं कराते और न ग्रहण करने वाले अन्य व्यक्ति का अनुमोदन करते हैं / / 13-14 // विवेचन -अचौर्य प्राचार---किसी के स्वामित्व, अधिकार या निश्राय की वस्तु, चाहे वह सजीव हो या निर्जीव (पात्र, पुस्तक, रजोहरणादि), अल्प हो या बहुत, अल्पमूल्य हो या बहुमूल्य, यहाँ तक कि एक तिनका ही क्यों न हो; उसके स्वामी या अधिकारी को विना प्राज्ञा, अनुमति या सहमति के मन, वचन और काया से स्वयं ग्रहण न करना, दसरों से ग्रहण न कराना: वाले का अनुमोदन न करना; अचौर्य महाव्रत का आचरण है, जिसका सभी साधु-साध्वियों को पालन करना अनिवार्य है। चित्तमंतमचित्तं० : व्याख्या चित्त का अर्थ है चेतना / ज्ञान-दर्शन-स्वभाव वाली चेतना जिसमें हो, वह चित्तवान् कहलाता है, वह द्विपद, चतुष्पद और अपद भी हो सकता है / जो चेतनारहित हो वह अचित्त कहलाता है, जैसे—सोना, चाँदी आदि / अप्पं वा..."बहुं वा : व्याख्या-अल्प और बहुत का अभिप्राय यहाँ प्रमाण और मूल्य दोनों से है / अतः अल्प और बहु की दृष्टि से चार विकल्प हो सकते हैं / 20 __ओग्गहंसि अजाइया : भावार्थ-अवग्रह का अभिप्राय है-वस्तु जिसके अधिकार में हो, उससे याचना (प्राज्ञारूप याचना, अनुमति-सहमतिरूपा या इच्छारूपा) किये बिना (ग्रहण न करे)।" चतुर्थ प्राचारस्थान : ब्रह्मचर्य (अब्रह्मचर्य-सेवन निषेध) 278. प्रबंभचरियं घोरं पमायं दुरहिट्ठियं / नाऽऽयरंति मुणी लोए भेयाययणवज्जिणो // 15 // 279. मूलमेयमहम्मस्स महादोससमुस्सयं / ग्गं निग्गंथा वज्जयंति मं // 16 // 18. दशवं. (ग्राचार्य श्री प्रात्माराम जी म.), पृ. 329 19. चित्तं नाम चेतणा भण्णइ, सा च चेतणा जस्स अस्थि तं चित्तमंत भण्ण इ, तं दुप्पयं चउप्पयं अपयं वा, होज्जा, अचित्तं नाम हिरण्यादि। -जिन. चणि. प. 218-219 20. अप्पं नाम पमाणनो मुल्लो वा, बहुमवि पमाणो मुल्लयो। -वही, पृ. 219 21. दशवै. (प्राचार्य श्री प्रात्मारामजी म.), पृ. 328-329 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages535
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy