________________ 240] [दशवकालिक सूत्र [278] अब्रह्मचर्य लोक में घोर (रौद्र), प्रमादजनक और दुराचरित है / संयम का भंग(भेद) करने वाले स्थानों से दूर रहने वाले (पापभीरु) मुनि उसका आचरण नहीं करते / / 15 / / [276] यह (अब्रह्मचर्य) अधर्म (पाप) का मूल है / महादोषों का पुंज है / इसीलिए निर्ग्रन्थ (साधु और साध्वी) मैथुन के संसर्ग (प्रासेवन) का त्याग करते हैं / / 16 // विवेचन-प्रब्रह्मचर्य त्याज्य : क्यों और कैसे ? प्रस्तुत दो गाथाओं में अब्रह्मचर्य के दोषोत्पादक पांच विशेषण बताकर इसे सर्वथा त्याज्य कहा है—(१) घोर, (2) प्रमाद, (3) दुरधिष्ठित, (4) अधर्म का मूल और (5) महादोषों का पुज / इनके कारणों की मीमांसा इस प्रकार है-(१) अब्रह्मचर्य को घोर, अर्थात्--रौद्र इसलिए कहा है कि अब्रह्मचारी के मन में दयाभाव नहीं रहता। वह अपने पाप को छिपाने अथवा अब्रह्मचर्य में येन-केन-प्रकारेण प्रवृत्ति करने के लिए रौद्र (क्रूर) बन जाता है। अपने मार्ग में रोड़ा अटकाने वाले का सफाया कर डालता है / ऐसा कोई भी दुष्कृत्य नहीं है, जिसे वह न कर सके / (2) अब्रह्मचर्य सभी प्रमादों का मूल है। इसमें प्रवृत्त मनुष्य इन्द्रियों और मन के दुर्विषयों में आसक्त, समस्त आचार, क्रियाकलाप और चर्याओं में प्रमत्त, भूलों से परिपूर्ण एवं असावधान तथा विलासी बन जाता है। कामभोग में आसक्त मनुष्य को अपने संयम, व्रत या प्राचार का भान नहीं रहता। वह मोह-मदिरा पी कर मतवाला बन जाता है / इसलिए अब्रह्मचर्य को 'प्रमाद' कहा है / 22 (3) अब्रह्मचर्य को दुरधिष्ठित इसलिए कहा गया है कि यह घृणा का अधिष्ठान (प्राश्रय) है, अथवा यह दुरधिष्ठान----यानी दुराचरण (निन्छ आचरण) है / अथवा अब्रह्मचर्य जुगुप्सित (निन्दित-घृणित) जनों द्वारा अधिष्ठित-आश्रित-सेवित है, साधुजन सेन्य नहीं है / (4) अब्रह्मचर्य अधर्म का मूल है, अर्थात्- समस्त पापों का बीज है या प्रतिष्ठान है / ऐसा कोई पाप नहीं है, जो अब्रह्मचारी से न हो सके। अब्रह्मचारी को धर्म, संयम, तप आदि की कोई भी बात नहीं सुहाती / (5) महादोष-समुच्छ्रय इसलिए कहा गया है कि अब्रह्मचर्य से व्यक्ति असत्य, माया, झूठ-फरेब, छल, पाप को छिपाने की दुर्वत्ति, चोरी, हत्या आदि अनेक महादोषों का पात्र बन जाता है / 23 22. (क) दशवकालिकसूत्रम् (प्राचार्य श्री आत्मारामजी म.), पृ. 330-331 (ख) घोरं भयाणगं। -अ. च., पृ. 146 (ग) घोरं रौद्र रौद्रानुष्ठानहेतुत्वात् / --हारि. वृत्ति, पत्र 198 (घ) घोरं नाम निरणक्कोसं, कहं ? अबंभपवत्तो हिण किंचि तं अकिच्चं जं सो न भणइ / __ -जिनदासचूणि पृ. 219 (ङ) 'जम्हा एतेण पमत्तो भवति, अतो पमादं भगइ, तं च सब्वपमादाणं आदी, अहवा सव्वं चरणकरण, तमि वट्टमाणे पमादेति त्ति। ---वही, पृ. 219 (च) 'प्रमाद'-प्रमादवत् सर्वप्रमादमूलत्वात् / —हारि. वृत्ति, पत्र 198 23. (क) दुरहिट्ठियं नाम दुगुञ्छं पावइ तमहिट्ठियंतो ति दुरहिट्ठियं / —जिन. चूणि, पृ. 219 (ख) 'दुरहिट्ठियं दुगु छियाधिद्वितं / ' - अग, चूणि, पृ. 146 (ग) दशवं. (आचार्य श्री आत्मारामजी म.), पृ. 330 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org